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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास इसलिए राज्य का ध्येय या व्यक्तियों को इस योग्य बनाना कि वे पुरुषार्थों, विशेषत: प्रथम तीन की ( अर्थ, धर्म काम, क्योंकि मोक्ष केवल कुछ व्यक्तियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता हैं, उसके लिए व्यक्तिगत अनुभूति एवं आध्यात्मिक शक्ति का होना अनिवार्य है ) प्राप्ति कर सकें । यहाँ तक कि बार्हस्पत्य सूत्र (२०४३) का कहना है किनीति का फल है। धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति । सोमदेव ने अपने ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत का शुभारम्भ उस राज्य को प्रणाम करके किया है, जो धर्म, अर्थ एवं काम नामक तीन फल देता है । कामन्दक ( ४।७७ ) ने राज्य के सातों अंगों की व्याख्या का अन्त इस उद्घोष के साथ किया है कि सम्पूर्ण राज्य का उच्च स्थायित्व घन ( कोष ) एवं बल (सेना) पर निर्भर है और जब वह निपुण मन्त्रियों द्वारा सँभाला जाता है तो निवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ एव काम की प्राप्ति होती है। कौटिल्य ( १1७ ) ने कहा है कि हमें काम अर्थात् जीवनानन्द सर्वथा छोड़ नही देना है, प्रत्युत उसे इस प्रकार प्राप्त करना या भोगना है कि उससे धर्म एवं अर्थ की प्राप्तियों में विरोध न हो। कौटिल्य ने यह भी जोड़ दिया है कि मनुष्यों को इन तीनों ध्येयों की प्राप्ति बराबर मात्रा में करनी चाहिए, क्योंकि वे एक-दूसरे पर निर्भर हैं और एक के आधिक्य से अन्य की एवं स्वयं उसकी हानि होती है।" धर्मशास्त्रकारों का कहना है कि धर्म राज्य की परम शक्ति है औरवह राजा के ऊपर की शक्ति है; राजा तो केवल एक यन्त्र या साधन है, जिसके द्वारा धर्म की प्राप्ति होती है। इन ग्रन्थकारों के मतानुसार राज्य स्वयं साध्य नहीं है, प्रत्युत वह साधन मान है जिसके द्वारा साध्य की प्राप्ति होती है। कौटिल्य अर्थशास्त्री थे, अतः उन्होंने अन्त में यही कहा है कि तीनों ध्येयों अर्थात् पुरुषार्थों में अर्थ प्रमुख है और अन्य दो अर्थात् काम एवं धर्म अपनी प्राप्ति में अर्थ पर ही निर्भर रहते हैं । ७०२ ५. नीतेः फलं धर्मार्थकामावाप्तिः । धर्मेणार्थकामपरीक्ष्यो । बार्हस्पत्य सूत्र ( २१४३-४४ ) । ६. अथ धर्मार्थ कामफलाय राज्याय नमः । नीतिवाक्यामृत ( पृ० ७ ) । ७. इति स्म राज्यं सकलं समीरितं परा प्रतिष्ठास्य धनं ससाधनम् । गृहीतमेत निपुणेन मन्त्रिणा त्रिवर्गनिष्पत्तिमुपति शाश्वतीम् ॥ काम० (४।७७ ) | ८. धर्मार्थाविरोधन कामं सेवेत । निःसुखः स्यात् । समं वा त्रिवर्गमयोन्यानुबन्धम । एको ह्त्यासेवितो धर्मार्थकामानामात्मानमितरौ च पीडयति । अर्थ एव प्रधानम् इति कौटिल्यः । अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति ॥ कौटिल्य (१1७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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