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राजधर्म का अन्तिम उद्देश्य
७०१ परम लक्ष्य है। राजधर्म का भी यही अन्तिम लक्ष्य है। किन्तु प्राचीन भारत में राज्य का तात्कालिक ध्येय था ऐसी दशाएँ एवं वातावरण उत्पन्न कर देना कि सभी लोग शान्ति एवं सुखपूर्वक जीवन-यापन कर सकें,अपने-अपने व्यवसाय कर सकें, अपनी परम्पराओं, रूढ़ियों एवं धर्म का पालन कर सकें, निविरोध अपने कर्मों एवं अपनी अजित सम्पत्ति का फल भोग सके । वास्तव में,राजा शान्ति,सुव्यवस्था एवं सुख की दशाओं को उत्पन्न करने का साधन था जो ईश्वर से सहज रूप में प्राप्त माना जाता था । यदि राजा निष्पक्ष होकर सब पर,चाहे वह अपना पुत्र हो या शत्रु हो, समान रूप से शासन करता है और उन्हें अपराध के अनुपात से ही दण्डित करता है, तो वह अपने तथा अपने प्रजाजनों केलिए इह एवं पर दोनों लोक सुरक्षित रखता है। राजा एवं प्रजा का कर्तव्यपालन स्वर्ग का द्वार खोल देता है। राज्य (या राज्य के प्रतिनिधि राजा) का कार्य था व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं सम्पत्ति के अधिकारों की अवहेलना करने वाले को धमकी देकर या शक्ति से रोकना, जनता के परम्परागत रीति-नियमों को प्रतिपालित करने के लिए नियम बनाना तथा सद्गुणों एवं धर्म की रक्षा करना । ये विचार कौटिल्य (३।१) के थे । कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ के आरम्भ में ही कहा है--"अतः राजा को यह देखना चाहिए कि लोग कर्तव्य-च्युत न हों, क्योंकि जो अपने धर्म में तत्पर रहता है और आर्यो के लिए जो नियम बने हैं उनका पालन करता है, तथा वर्णों एवं आश्रमों के नियमों का सम्मान करता है वह इहलोक एवं परलोक दोनों में प्रसन्न रहता है।"
कामन्दक (१।१३) एवं शुक्र (१।६७) का कहना है कि जो राजा न्याय एवं नियमों का सम्यक् पालन करता है, वह अपने एवं प्रजाजन को त्रिवर्ग अर्थात् तीन पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ एवं काम) देता है, यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह अपना एवं प्रजा का सत्यानाश कर देता है। यही बात शान्ति० (८५२) एवं मार्कण्डेयपुराण (२७।२६-३०) ४ में भी पायी जाती है । अतः स्पष्ट है कि राजा को प्रजा द्वारा वर्णाश्रम धर्मपालन करवाना पड़ता था,यदि कोई वर्णाश्रमधर्म से च्युत होता था तो उसे दण्डित करना भी राजा का कर्तव्य था। शुक्र (४१४३६) का कहना है कि प्रत्येक जाति को परम्परागत नियमों का पालन करना पड़ता था, यदि कोई ऐसा नहींकरता था तो उसेदण्डकाभागीहोना पड़ता था सभी मुख्त ग्रन्थों का कथन है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्ण एवं आश्रम तथा स्वयं अपने कर्तव्यों का पालन करनाचाहिए सभी को सामान्य धर्म, यथा-अहिंसा, सत्य आदि का पालन करना चाहिए (देखिए इस ग्रन्थ के भाग २ का अध्याय १)। राज्य का उददेश्य था प्रत्येक व्यक्ति को उपर्युक्त कर्तव्य करने देना तथा उन लोगों को रोकना जो उसके कर्तव्य पालन में बाधा डालते हैं। जो पीढ़ियों से सम्पूज्य है और आदर्श है उसकी रक्षा करना भी राज्य का कर्तव्य था। किन्तु ग्रन्थकारों ने यह नहीं कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति सक्रिय रूप से पूरे समाज के लिए कार्य करे। अन्तिम लक्ष्य था मोक्ष, अतः परलोक की चिन्ताअधिक की जाती थी, व्यक्तिगत अर्जना (निपुणता) एवं सन्यास या विरक्ति को अधिक महत्त्व दिया जाता था।
२. राज्ञः स्वधर्मः स्वर्गाय प्रजा धर्मेण रक्षितुः ।...दण्डो हि केवलो लोकं परं चेमंच रक्षति । राजा पुत्रेच शत्रौ च यथादोषं सम धृतः ॥ कौटिल्य ३।१; तस्मात्स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत् । स्वधर्म सन्दधानो हि प्रेत्य चेह च नन्दति ॥ व्यवस्थितार्य मर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः । त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति।। कौटिल्य ११३; चतुर्वर्णाश्रमो लोको राज्ञा दण्डेन पालितः । स्वधर्मकर्माभिरतो वर्तते स्वेषु वर्त्मसु ॥ कौटिल्य १।४।
३. न्यायप्रवृत्तो नृपतिरात्मानमपि च प्रजाः । त्रिवर्गेणोपसन्धत्ते निहन्ति ध्रुवमन्यथा ॥ काम० १।१३ एवं शुक्र० ११६७।
४. वर्णधर्मा न सीदन्ति यस्य राज्ये तथाश्रमाः। वत्स तस्य सुखं प्रेत्य परत्रेह च शाश्वतम् ॥ मार्कण्डेयपुराण २७।२६।
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