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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास दुहराने में ही अपनी विद्वत्ता की इतिश्री समझी, देश-भक्ति की अग्नि सुलगायी नहीं जा सकी। इन कतिपय दोषों के रहते हुए भी भारतीय शासन-पद्धति के सिद्धान्तों एवं प्रयोगों की अपनी गुरुतर विशेषताएँ हैं। इस परिच्छेद के अन्त में यह पूछा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय राज्य के क्या उद्देश्य या ध्येय थे ? अथवा यों भी पूछा जा सकता है; धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के लेखकों ने राज्य के समक्ष क्या उद्देश्य रखे थे? यूरोपीय विद्वानों ने राज्य के उद्देश्य के विषय में विभिन्न समयों में विभिन्न बातें कही हैं ? दो-एक उदाहरण पर्याप्त होंगे। प्लेटो एव अरिस्टॉटिल (अफलातून एवं अरस्तू ) के शब्दों में नागरिकों का अच्छा जीवन ही राज्य का ध्येय था। किन्तु अच्छा जीवन क्या है, यह कहना कठिन है। ब्लण्ट्श्ली ने अपनी पुस्तक 'थ्योरी आव दी स्टेट' (आक्सफोर्ड, १८८५, पुस्तक ५, अध्याय ४, पृ० ३००) में लिखा है कि राज्य का ध्येय होना चाहिए---राष्ट्रीय समर्थताओं का विकास, राष्ट्रीय जीवन का परिमार्जन तथा अन्त में उसकी पूर्णता, किन्तु नैतिक एवं राजनीतिक गति का मानव की नियति से विरोध न हो। यह परिभाषा न तो सुस्पष्ट है और न सटीक । मानव की नियति या भाग्य के विषय में अभी मतैक्य नहीं है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय जीवन के विषय की मान्यताएँ भी अभी यूरोप में कुछ ही शताब्दी पुरानी हैं। 'राष्ट्र' शब्द के लिए कोई भी 'देश' या 'राज्य' शब्द का व्यवहार कर सकता है; और तभी यह भारत के विषय में कुछ अर्थ रख सकता है। एक या कुछ शब्दों में राज्य के ध्येय पर प्रकाश डालना कठिन है। राजत्व के आदर्शों की व्याख्या करते समय हमने इस विषय में कुछ चर्चा कर दी है। धर्मशास्त्रकारों की दृष्टि में मानव-स्वभाव गहित-सा प्रतीत होता है, उनका विश्वास-सा था कि साधारण व्यक्ति कलुषित होते हैं, स्वभाव से पवित्र व्यक्ति कठिनता से प्राप्त होते हैं, केवल दण्ड के भय से व्यक्ति सीधे मार्ग पर आते हैं (मनु ७।२२, शान्ति० १२३४)। याज्ञ०(११३६१)ने लिखा है कि जब वर्ण एवं श्रेणियाँ अपने धर्म से च्युत हों तो राजा को चाहिए कि वह उन्हें दण्डित करे और उचित मार्ग पर ले आये । कामन्दक (२।४० एवं ४२-४३) ने भी यही बात कही है और जोड़ दिया है कि बिना दण्ड के विश्व में मात्स्यन्याय (बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को सबल निर्बल को समाप्त कर देते हैं) की उत्पत्ति हो जाती है। यही बात शुक्रनीति (१।२३) में भी कही गयी है । पश्चिमी लेखकों ने भी यही बात दूसरे ढंग से कही है। प्राचीन लेखकों ने मानव की सहज वृत्तियों पर विश्वास नहीं किया और न यही कहा कि उसकी उचित कार्य करने की इच्छा पर विश्वास करना चाहिए । जेरेमी टेलर का कहना है---"मानवों की अपेक्षा भेड़ियों का झुण्ड अधिक शान्त होता है...।" सेलमाण्ड (जुरिसप्रूडेंस, पृ०६५) का कहना है--"मानव स्वभाव से ही युद्धालु है, शक्ति केवल राजाओं की ही चरम स्थिति नहीं है, प्रत्युत वह सम्पूर्ण मानव में समाहित है।" हमें तत्कालीन एवं चरम उददेश्यों के अन्तर को भी समझ लेना होगा। भारतीय दार्शनिक जीवन में मोक्ष ही खा डालती हैं अर्थात सबल तिर्वलको त - १. सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः । दण्डस्य हि भयाद् भीतो भोगायव प्रवर्तते ॥ शान्ति० (१५॥३४); इदं प्रकृत्या विषयैर्वशीकृतं परस्परं स्त्रीधनलोलुपं जगत् । सनातने वर्त्मनि साधुसेविते प्रतिष्ठते दण्डभयोपपीडितम् ।। काम० (२।४२); राजदण्डभयाल्लोकः स्वस्वधर्मपरो भवेत् । शुक्र(१।२३)। यह मान्यता प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ मैकियवेली की मान्यता से शत-प्रति-शत मिलती है (डिसकोर्स, १।३, श्री एच० बटरफील्ड द्वारा "स्टेटकेपट आव् मैकियवेली", १६४०, पृ.० १११ में उदधत), जिन्होंने नागरिक जीवन की समस्याओं की व्याख्या की है, वे प्रदर्शित करते हैं और इतिहास में इसकी पुष्टि के लिए अनेक उदाहरण हैं--कि जो लोग राज्य-व्यवस्था करते हैं और शासन चलाने के लिए नियम बनाते हैं, उन्हें यह मान लेना होगा कि मानव प्रकृति से ही दुष्ट होते हैं, भौर वे अवसर पाने पर अपनी सहज दुष्टता दिखाने से चकेंगे नहीं, भले ही कुछ काल के लिए वे उसे छिपा रखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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