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व्यवहार ( न्याय पद्धति)
अध्याय ११
'व्यवहार' का अर्थ, व्यवहारपद, न्यायालयों के प्रकार आदि
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हमने इस भाग के तीसरे अध्याय में देख लिया है कि निष्पक्ष न्याय करना एवं अपराधी को दण्ड देना राजा के प्रमुख कार्यों में था। राजा न्याय का स्रोत माना जाता था । कौटिल्य ( १।१६) ने लिखा है कि दिन के दूसरे भाग में ( दिन को आठ भागों में बाँटा गया था) राजा को पौरजानपदों (नगरवासियों एवं ग्रामवासियों) के झगड़ों को निपटाना चाहिए । मनु ( ८1१-३) ने भी लिखा है कि लोगों के झगड़ों को निपटाने की इच्छा से राजा को ब्राह्मणों एवं मंत्रियों के साथ सभा (न्याय भवन) में प्रवेश करना चाहिए और प्रति दिन झगड़ों के कारणों को तय करना चाहिए। शुक्रनीतिसार (४।५-४५), मनु (८1१), वसिष्ठ ० (१६।२), शंखलिखित, याज्ञ ० ( १।३२७ एवं २1१ ), विष्णुधर्मसूत्र ( ३७२), नारद (१।२), शुक्र० (४/५/५), मानसोल्लास ( २।२०, श्लोक १२४३ ) का कहना है कि न्याय - शासन राजा का व्यक्तिगत कार्य या व्यापार है । मिताक्षरा (याज्ञ० २1१ ) का कहना है कि प्रजा-रक्षण राजा का सर्वोच्च कर्तव्य है, यह कर्तव्य बिना अपराधियों को दण्डित किये पूर्ण नहीं हो सकता, अतः राजा को न्याय ( व्यवहारदर्शन ) करना चाहिए । मेधातिथि (मनु ८।१) का भी कहना है कि लौकिक एवं पारलौकिक (अदृष्ट) कष्टों को दूर करना ही प्रजा रक्षण है, मनु ( ८।१२ एवं २४ = नारद ३१६६, पृ० ४२ ) ने न्याय - शासन को धर्म का प्रतीक माना है और कहा है कि जब न्याय होता है तो धर्म के शरीर से उसे वेघनेवाला अधर्म नाम का वाण निकल जाता है । याज्ञ • ( १।३५६- ३६० ) ने घोषित किया है कि निष्पक्ष न्याय मे वही फल मिलता है जो पवित्र वैदिक यज्ञों से मिलता है। स्पष्ट है, न्यायानुशासन एक बहुत ही पवित्र कर्तव्य था । मनु ( ८।१२८ = वृद्ध हारीत ७।१६४ ) ने कहा है कि जो राजा निरपराध को दण्डित करता है और अपराधी को छोड़ देता है वह पाप करता है, निन्दा का भागी होता है और नरक में जाता है । वसिष्ठ० (१६।४०४३) ने अपराधी के छूट जाने पर राजा को एक दिन तथा पुरोहित को तीन दिन उपवास करने को कहा है तथा निरपराधी को दण्डित करने पर राजा को तीन दिन उपवास तथा पुरोहित को कृच्छ प्रायश्चित करने को कहा है। महाभारत (अनुशासन ६ । ३८ एवं अध्याय ७०) एवं रामायण (उत्तरकाण्ड ५३।१८, १६, २५ ) ने लिखा है कि जो राजा आनन्द-भोग में लिप्त रहता है और प्रजा के झगड़ों का निपटारा नहीं करता, वह मृग की भांति दुःख भोगता है (जब दो ब्राह्मणों के गाय सम्बन्धी झगड़े का निपटारा नही हुआ तो उन्होंने राजा नृग को गिरगिट हो जाने का शाप दिया था - रामायण)। शुक्रनीतिसार (४|५|८) ने भी यही बात कही है। मेगस्थनीज (फैगमेण्ट २७, पृ० ७०-७१ ) ने लिखा है
१. द्वितीये पौरजानपदानां कार्याणि पश्येत् । कौटिल्य ( १/१६) ।
२. अर्थिनामुपसनानां यस्तु नौपति दर्शनम् । सुखे प्रसक्तो नृपतिः स तप्येत नृगो यथा ॥ महाभारत -- दण्डविवेक द्वारा उद्धृत, पृ० १३; अर्थिनां कार्यसिद्ध्यर्थं यस्मात्त्वं नैषि दर्शनम् । अदृश्यः सर्वभूतानां कृकलासो भवि - safe || कार्याfथनां विमर्दो हि राज्ञां दोषाय कल्पते । रामायण, उत्तरकाण्ड (५३।१८, १६, २५ ) : पौरकार्याणि यो
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