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________________ ६६८ धर्मशास्त्र का इतिहास लोम्यमभावः प्रदोषः प्रसंग: पीडा वा व्यसनं व्यस्यत्येनं श्रेयस इति व्यसनम् " -- ऐसा कौटिल्य का कथन है ( 19 ) | और देखिए काम० (१३।१६) एवं नीतिवाक्यामृत ( पृ० १७७ ) । "व्यस्य त्यावर्तयत्येनं पुरुषं श्रेयस इति व्यसनम् " ऐसा नीतिवाक्यामृत में आया है । 'व्यसन' वह है जो मनुष्य को अच्छे कार्य से वंचित कर दे । कौटिल्य के अनुसार व्यसन गुणों ( यथा कुलीनता, वंश-परम्परागत वीरता) का अभाव है, या अच्छे गुणों का विरोध है, या दोष ( यथा अत्यधिक क्रोध), अत्यन्त प्रसंग ( स्त्री आदि से), पीड़ा ( आक्रमण या दुर्भिक्ष आदि से ) आदि का द्योतक है । इस प्रकार व्यसन मोटे तौर से दो भागों में बाँटा जा सकता है, यथा कामजनित व्याधियाँ एवं दोष तथा क्रोधजनित दोष । आचार्यों का कथन है कि राजा, मन्त्रियों, प्रजाजनों, दुर्ग, कोष, सेना एवं मित्र राष्ट्रों के दोषों में पूर्व दल के लोगों के दोष क्रमशः उत्तर दल के लोगों के दोषों से बड़े गिने जाते हैं। कौटिल्य आचार्यों के मत को स्वीकार करते हैं। उनका कथन है कि सभी दोष राजा के मत्थे जाने चाहिए, क्योंकि राजा ही मंत्रियों, पुरोहित, अध्यक्षों आदि की नियुक्ति करता है । प्रजाजनों की उन्नति एवं अवनति राजा पर ही निर्भर है। इस विषय में कौटिल्य ने भारद्वाज से विरोध प्रकट किया है । कौटिल्य महोदय उच्चाधिकारियों को अधिक उत्तरदायी मानते हैं। उनका कहना कि अबोध राजा (जिसने शास्त्रों का अध्ययन न किया हो) । उस शास्त्रज्ञ राजा से अच्छा है जो जान-बूझकर शास्त्रों के विरोध में जाता है, कष्टसहिष्णु राजा विजयी (नयी विजय करने वाले ) राजा से अच्छा है, दुर्बल किन्तु कुलीन राजा सबल किन्तु अकुलीन राजा से अच्छा है । कौटिल्य ने राजाओं के बहुत-से दोष गिनाये हैं, जिनकी चर्चा (इस भाग के अध्याय २ में ) पहले ही कर दी गयी है । उन्होंने जुआ को मृगया से बुरा माना है और इसी प्रकार काम को जुआ से, मद्यपान को काम से बुरा कहा है । संघों की तोड़-फोड़ अर्थात् फूट के मूल में जुआ प्रधान कारण माना गया है। दैवी विपत्तियों (यथाअग्नि, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष ) में बाढ़ सबसे अधिक प्रलयकारी है ( ८ । ४ ) । इसी प्रकार अग्नि, रोग एवं महामारियाँ दुर्भिक्ष से कम भयंकर हैं तथा थोड़े भी विशिष्ट व्यक्तियों का नाश सहस्रों लोगों के नाश की अपेक्षा अधिक गम्भीर है । कौटिल्य का कथन है कि प्रियतमा रानी के षड्यन्त्र से युवराज का षड्यन्त्र कम महत्त्वपूर्ण है । कौटिल्य ने सेना एवं मित्र राष्ट्रों से उत्पन्न कठिनाइयों का विश्लेषण किया है। उन्होंने सेना से उत्पन्न ४३ कठिनाइयों के कारणों पर प्रकाश डाला है, यथा-- सैनिकों को उचित आदर न देना, घृणा करना, समय पर वेतन न देना, रोग से रक्षा न करना, अत्यधिक स्त्री-प्रेमी सैनिकों की भर्ती करना आदि। इन बातों पर कौटिल्य ने सविस्तर प्रकाश डाला है, 1 जिसे हम स्थानाभाव से यहाँ उल्लिखित नहीं कर सकते । राजधर्मकाण्ड, राजनीतिप्रकाश तथा अन्य ग्रन्थों में के करने की व्यवस्था दी गयी है । ये कृत्य राष्ट्रीय उपद्रवों से धर्मकाण्ड (पृ० ११५-११६) एव राजनीतिप्रकाश ( पृ० ४१६ ४१६ ) ने ब्रह्मपुराण के ३५ श्लोक उद्धृत करके बताया है कि राजा को वैशाख मास से लेकर एक या अधिक महीनों तक ब्रह्मा, देवताओं, गंगा, विनायक, नागों, स्कन्द, आदित्यों इन्द्र एवं रुद्र, माताओं ( दुर्गा आदि), पृथिवी, विश्वकर्मा, विष्णु, कामदेव, शिव, चन्द्र की पूजा क्रम से प्रतिपदा से लेकर १५ दिनों तक करनी होती थी । इसको देवयात्रा कहा गया है। उपर्युक्त ग्रन्थों ने स्कन्दपुराण से १८ श्लोक उद्धृत करके कौमुदी - उत्सवों, इन्द्र-ध्वज को फहराने आदि के कृत्यों का वर्णन किया है। देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय २४ । इन ग्रन्थों ने देवीपुराण का हवाला देकर आश्विन की अष्टमी एवं नवमी तिथियों देवी की पूजा का वर्णन किया है। इन तिथियों में पशु हनन होता था । कार्तिक की अमावस्या को गो-पूजन या दान होता था । वसोर्धारा ( सम्पत्ति की धारा ) का कृत्य भी होता था । स्थानाभाव से इनका वर्णन नहीं किया जायगा । Jain Education International राजाओं के लिए बहुत से क्रिया-संस्कारों, उत्सवों आदि रक्षार्थं, प्रजारंजन आदि के लिए किये जाते थे । राज For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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