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नीराजनाविधि; व्यसन
प्रस्थान के पूर्व राजा को नोराजनाविधि करनी पड़ती थी, जिसमें घोड़ों, हाथियों, पताकाओं, सेनाओं आदि के समक्ष दीपक घुमाये जाते थे । कौटिल्य (२।३०) ने लिखा है कि आश्विन के नवें दिन घोड़ों के समक्ष दीपक घुमाये जाने चाहिए और यही बात आक्रमण के आरम्भ एवं अन्त में तथा महामारियों के समय की जानी चाहिए। कौटिल्य (२।३२) ने चातुर्मास्य (आषाढ़ से आश्विन तक) तथा दो ऋतुओं की संधि के समय हाथियों के समक्ष नीराजनाविधि करने को कहा है। कालिदास ने रघुवंश (४।२५) में नीराजनाविधि की ओर संकेत किया है ।१८ इस विषय में और देखिए कामन्दक (४।६६), बृहत्संहिता (अध्याय ४४), शौनकीय (२८), अग्निपुराण (२६८), विष्णुधर्मोत्तर (२११५६, राजनीतिप्रकाश, पृ० ४३४-४३८ में विस्तार के साथ उद्धृत), कालिकापुराण (८८।१५), निर्णयसिन्धु (२, पृ० १६६), तथा युक्तिकल्पतरु (पृ० १७८) । विस्तार से जानकारी के लिए पढ़िए वराहमिहिरकृत बृहत्संहिता (अध्याय ४४)।
शत्रु पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त विजयी के कर्तव्यों के विषय में (यथा--मृत राजा की गद्दी पर उसके पुत्र या किसी सम्बन्धी को बैठाना, विजित देश की रूढियों एवं परम्पराओं का आदर करना आदि) बहुत पहले ही कहा जा चुका है (दखिए, इस भाग का अध्याय ३) । विजय हो जाने पर राज्य-भाग की प्राप्ति या सोने, चांदी, पोड़ों, हाथियों, मोतियों, रत्नों, सुन्दर परिधानों आदि की प्राप्ति होती थी। विशेषतः कम्बोज, बालीक, गन्धार आदि उत्तर-पश्चिमी देशों के घोड़ों का बड़ा मूल्य था। देखिए सभा० (५१।१०, ५३।५), उद्योग० (८६।६), द्रोण. (१५६।-४७), सौप्तिक० (१३१२) और सभा० (२७।२७, २८।६ भेट-स्वरूप घोड़ों के लिए) । सभा० (३०।२८-३०) में उपर्यक्त भेटे भीम ने म्लेच्छ राजाओं से प्राप्त की थीं।
कौटिल्य ने व्यसन के विषय में भी एक परिच्छेद (सातवाँ) लिख दिया है। 'व्यसन' का तात्पर्य है "गुणप्राति
शाससोपणैः । प्रधारयन्तु मधुनो घृतस्येति सौपर्णम् । सर्वा दिशोनुपरियायात् । आदित्यमोशनसं वावस्थाय प्रयोधमेयत् । उप श्वासय पृथिवीमत द्यामिति ज्यूचेन दुन्दुभिमभिमृशेत् । अवसृष्टा परापतेतीपून्विसर्जयेत् । यत्र बाणाः सम्पतन्तीति युध्यमानेषु जपेत् । संशिष्याद्वा। आश्व० गु० (३।१२) । "आदित्यमोशनसं वा" के साथ मिलाइए शान्तिपर्व (१००। २०)--"यतो वायुर्यतः सूर्यो यतः शुक्रस्ततो जयः । पूर्व पूर्व ज्याय एषां संनिपाते युधिष्ठिर ॥" इससे स्पष्ट है कि विजयी राजा को सर्य या औशनस (शुक्र) की ओर मख नहीं करना चाहिए, प्रत्युत इनको पीछे रखना चाहिए, विजयेच्छुक राजा के सामने तेज हवा भी नहीं होनी चाहिए, उसे उसके पीछे से बहना चाहिए । कुमारसम्भव(३।४३) में कालिदास ने लिखा है--'दृष्टिप्रपातं परिहृत्य तस्य कामः पुरः शुक्रमिव प्रयाणे', जिसकी व्याख्या में मल्लिनाथ ने उद्धरण दिया है --"प्रतिशुक्र प्रतिबुधं प्रत्यंगारकमेव च । अपि शक्रसमो राजा हतसैन्यो निवर्तते ॥" युक्तिकल्पतरु (पृ० १७६, डा० एम० एन० ला द्वारा सम्पादित) में आया है--"शस्तस्तु देवलमतेऽध्वनि पृष्ठतोऽकः" (श्लोक ७६)।
१८. राज्ञां यात्राविधि वक्ष्ये जिगोषणां परावनीम् । नीराजनाविधि कृत्वा सैनिकांश्चानयेत्ततः । गजानन्यान् मृगानन्यानिति यात्राक्रमो मतः ॥ युक्तिकल्पतरु (पृ० १७८) । नीराजनामाश्वयुजे कारयेन्नवमेहनि । यात्रादाब. वयाने वा व्याधौ बा शान्तिके रतः ।। अर्थशास्त्र (२।३०); तिस्रो नीराजनाः कार्याश्चातुर्मास्यर्तसन्धिषु । अर्थशास्त्र (२।३२) । उत्पल ने 'नीराजन' का अर्थ यों लगाया है-नोरेण जलेन अजनं स्पर्शनम् (बृहत्संहिता ४३११ के भाष्य में) । यह शब्द निर् + राजन (राज् से) से भी निकला हो सकता है । तस्मै सम्यग्घुतो वह्निर्वाजिनीराजनाविधौ । प्रदक्षिणाचिया॑जेन हस्तेनेव जयं ददौ ॥ रघुवंश (४।२५) ।
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