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धर्मशास्त्र का इतिहास प्रयाण के कुछ शुभ शकुन ये हैं---श्वेत पुष्प, जलपूर्ण घट, गायें, घोड़े, हाथी, अग्नि की ज्वाला, वेश्या, दूब, सोना, चाँदी, ताँबा, सभी रत्न, तलवार, छाता, ध्वजा, शव, (जिसके साथ रुदन करते हुए लोग न हों),फल एवं स्वस्तिक चिह्न । अशुभ शकुन ये हैं-काला अनाज, रुई, सूखा गोबर, ईंधन, मुण्डित सिर या नंग-धडंग मनुष्य या बिखरे बालों वाला या लाल वस्त्र धारी व्यक्ति, पागल, चण्डाल, गर्भवती नारी, टा घट, भूषा या चोकर, राख एवं हडडियाँ । मानसोल्लास (२।१३, श्लोक ८११-८२३, पृ० १०२-१०३) एवं नीतिमयूख (पृ. ५८-५६) ने भी अशुभ एवं शुभ वस्तुओं एवं घटनाओं की सूची दी है। मत्स्य० (२४३।२७) एवं विष्णुधर्मोत्तर (२।१६३।३२) ने बड़ी सावधानी से यह बात कही है कि पूर्ण विश्वास एवं प्रसन्न मुद्रा से युक्त मन विजय का सूचक होता है ।१६ गौतम (११।१५-१७) ने भी ज्योतिषियों तथा अशुभ लक्षणों को दूर करने में चतुर एवं दक्ष लोगों की बात मानने पर बल दिया है और ग्रहशान्ति, स्वस्त्ययन, जादू आदि की व्यवस्था बतलायी है। कौटिल्य ने भी आसन्न विपत्तियों को दूर करने के लिए देव-पूजा, ब्राह्मण-सत्कार एवं अथर्ववेद द्वारा व्यवस्थित क्रिया-संस्कार करने को कहा है। मनु (७।८२) एवं याज्ञ० (१।३१५) ने लिखा है कि विद्वान् ब्राह्मणों को दी गयी भेट राजा के लिए अक्षय सम्पत्ति होती है। राजधर्मकाण्ड (पृ० १०६) ने ब्रह्मपुराण का उद्धरण देते हुए लिखा है कि राजा को प्रति वर्ष दो लक्ष-होम एवं कोटि-होम करने चाहिए । राजधर्मकाण्ड (पृ० ११३) एवं राजनीतिप्रकाश (पृ० १४४) ने उद्योगपर्व (३३।६३-६५) का हवाला देते हुए मनुष्य की अवनति के आठ लक्षण बताये हैं; व्राह्मण-घृणा, ब्राह्मण-विरोध, ब्राह्मण-सम्पत्ति छीन लेना, उन्हें मार डालने या हानि पहुंचाने की इच्छा रखना, उन्हें अपमानित करने मे आनन्द लेना, उनकी प्रशंसा से चिढ़ जाना, धार्मिक कृत्यों में उनका स्मरण न करना तथा उनके द्वारा प्रार्थना किये जाने पर आक्रोश प्रकट करना।
प्राचीन काल में रणक्षेत्र में जाने के पूर्व राजा किस प्रकार सजता या सन्नद्ध होता था, इसके विषय में मनोरंजक बातें ज्ञात हैं। आश्वलायनगृह्यसूत्र (३।१२) का कहना है कि जब लड़ाई होने वाली हो, पुरोहित को चाहिए कि वह राजा को कवच निम्न रूप से पहनाये । राजा के रथ के पश्चिम भाग में खड़े होकर पुरोहित को यह मन्त्र (ऋ० १०।१७३) कहना चाहिए--"मैं तुम्हें ले आया हूँ" आदि । इसके उपरान्त ऋग्वेद (६।७५।१) के मन्त्र के साथ राजा को कवच देना चाहिए । पुनः पुरोहित दूसरे मन्न (ऋ० ६७५।२--"धन्वना गा") के साथ राजा को धनुष देता है और मन्त्र (ऋ० ६।७५॥३) का पाठ करने को कहता है एवं स्वयं मन्त्र (१० ६।७४।४) पढ़ता है । इसके उपरान्त वह मन्त्र (ऋ० ६७५।५) के साथ राजा को तुणीर देता है। जब संग्राम-दिशा की ओर रथ चलने लगता है तो पुरोहित मन्त्र (ऋ० ६१७५।१) पढ़ता है और घोड़ों पर सातवाँ मन्त्र (ऋ० ६७५१७) पढ़ता है एवं राजा से आठवाँ मन्त्र (ऋ०६७५८)पढवाता है। इसी प्रकार मन्त्रों के पाठ के साथ अन्य क्रियाएँ की जाती हैं, जिन्हें हम
नाभाव से यहां नहीं दे रहे हैं ; शेष बातें पाद-टिप्पणी में देखिए।१७ बाण ने हर्षचरित (सातवें उच्छवास) में दिग्विजय के लिए हर्ष के प्रस्थान का बहुत ही सुन्दर एवं सच्चा वर्णन किया है।
१६. मनसस्तुष्टिरेवात्र परमं जयलक्षणम् । एकतः सर्वलिंगानि मनसस्तुष्टिरेकतः ॥ मत्स्य० (२४३ । २७ -- विष्णुधर्मोत्तर २।१६३।३२)।
१७. संग्रामे समुपोढे राजानं संनाहयेत् । आ त्वा हार्षमन्तरेधीति पश्चाद्रथस्यावस्थाय । जीमूतस्येव भवति प्रतीकमिति कवचं प्रयच्छतै । उत्तरया धनुः । उत्तरां वाचयेत् । स्वयं चतुर्थों जपेत् । पञ्चम्येषुषिं प्रयच्छेत् । अभिप्रवर्तमाने षष्ठीम् । सप्तम्याश्वान् । अष्टमीमिषनवेक्षमाणं वाचयति । अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुमिति तलं नयमानम । अर्थनं सारयमाणमपारुयाभोवतं वाचयति प्रयो वां मित्रावरुणेति च दे। अर्थनमन्वीक्षेताप्रतिरथ
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