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________________ ६६४ धर्मशास्त्र का इतिहास कहते हैं। वे संघियाँ जो कोश देने की शर्त पर की गयी हों, परिक्रय (जिसमें कोश दे देने पर राज्य के अन्य तत्व सुरक्षित रह जाते हैं), उपग्रह (जिसमें एक मनुष्य के कंधों पर ढोने के बराबर कोश दिया जाय) एवं कपाल (शाब्दिक अर्थ--किसी भाण्ड का टूटा अर्ध भाग, अर्थात् जहाँ प्रभूत धन दिया जाय) नामों मे पुकारी जाती हैं । इन संधियों को कोशोपनत संधियों की संज्ञा प्रदान हुई है । देशोपनत संधियों (जिनमें राज्य-भूमि देने की शर्त रहती है) के प्रकार हैं--आदिष्ट (जिसमें एक भाग देकर सारी राज्य-भूमि बचा ली जाती है), उच्छिन्न ( जिसमें सारी राज्य-भूमि ले ली जाती है, केवल राजधानी छोड़ दी जाती है और वह भी धनहीन), अपक्रय (जिसमें राज्य छोड़ दिया जाता है, किन्तु उपज ली जाती है) तथा परिभषण (जिसमें उपज से अधिक देने की बात निश्चित हो)। ___ कामन्दक (६।२१-२२) ने कुछ और प्रकार जोड़े हैं और कहा है कि केवल उपहार (भेट देना) ही संधि है, अन्य सन्धियाँ इसके प्रकार (हेर-फेर) मात्र हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा है कि केवल मित्र-सन्धि (बिना भूमि, धन आदि दिये मित्रता की सन्धि ) उपहार के अन्तर्गत नही आती । काम० (६-२०) एवं मानसोल्लास (२।११, पृ०६४-६५) में अन्य चार सन्धियों का उल्लेख हुआ है, यथा-मैत्र, परस्परोपकार (एक-दूसरे को सहायता देने की सन्धि), सम्बन्धज (कन्या देकर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना) एवं उपहार। इस विषय में एक उदाहरण मिलता है; सन् १२३२ ई० (संवत् १२८८) में वैशाख पूर्णिमा के दिन सोमवार को देवगिरि के यादव राजा सिंघण ने (जिन्हें महाराजाधिराज की उपाधि दी गयी है) बाघेल राजा लावण्यप्रसाद (लवण प्रसाद, जिन्हें राणक एवं महामण्डलेश्वर की उपाधि मिली है) से संधि की और तय पाया कि वे एक-दूसरे पर आक्रमण नही करेंगे और किसी अन्य के आक्रमण करने पर एक-दूसरे की सहायता करेंगे। यह बात लेखपंचाशिका में लिखित है (देखिए, बाम्बे गजेटियर, जिल्द १, भाग १, पृ० २००) । काम० (६।२३-२६) एवं अग्नि० (२४०।१०-१३) ने ऐसे दस लोगों के प्रकार बताये हैं जिनके साथ सन्धि नहीं करनी चाहिए । कामन्दक (६।४२-५२) ने ऐसे सात लोगों के भी नाम बताये हैं जिनके साथ सन्धि करनी चाहिए । इन बातों के लिए कामन्दक ने कारण भी बताये हैं। अपने से बराबर बालों के साथ (न केवल अपने से अधिक शक्तिशाली के साथ) भी सन्धि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि रण क्षेत्र में विजय संदिग्ध रहती है (काम. ६-५६) । कौटिल्य ने एक सुन्दर उपमा दी है; जब दो समान राजा एक-दूसरे से भिड़ जाते हैं तो वे कच्चे घड़े की भांति टूट जाते हैं। जब अधिक शक्तिशाली राजा सन्धि के लिए उद्यत न हो तो दुर्बल राजा को अपनी सेना लेकर शक्तिशाली राजा की सहायता के लिए चल देना चाहिए। कौटिल्य (७।१२) ने सन्धियों एवं दुर्ग-निर्माण, सिंचाई के विषय में तथा अन्य बातों की चर्चा करते समय महत्वपूर्ण निर्देश दिये हैं; स्थल-मार्ग जल-मार्ग से अच्छा है, दक्षिणी एवं उत्तरी मार्गों में प्रथम अच्छा है।१४ कामन्दक (१०।१५- अग्नि० २४०।१६)के मत से वैर के पाँच प्रकार हैं; विमाता से उत्पन्न भाई का, भूमि (भूमि या घर पर अधिकार कर लेने से) का, स्त्री से उत्पन्न (स्त्री को भगा ले जाने या एक ही स्त्री को प्यार करने के कारण ), शब्दों के कारण (गाली या व्यंग्यात्मक ढंग अपनाने से) तथा त्रुटियाँ या अपकार करने से। कामन्दक (१०।२-५ = अग्नि० २४०।२०-२४) ने उन सोलह विधियों का वर्णन किया है जिनसे विग्रह उत्पन्न होता है, यथा--राज्य पर अधिकार कर लेना, स्त्री, जनपद, वाहन (हाथी,घोड़ा),दूसरे का धन आदि छीन लेना, गर्व करना, उत्पीडित करना आदि। जब कोई राजा यह जान ले कि उसकी सेना का भली भाँति पालन-पोषण हो रहा १४. स्थलपथेपि हैमवतो दक्षिणापथाच्छे यान् हस्त्यश्वगन्धदन्ताजिनरूप्यसुवर्णपण्याः सारवत्तरा इत्याचार्याः । नेतिकौटिल्यः । कम्बलाजिनाश्वपण्यवर्जाः शंखवज्ञमणिमुक्ताः सुधर्णपण्याश्च प्रभूततरा दक्षिणापथे। कौटिल्य (७।१२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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