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________________ षड्गुण एवं सन्धि के भेद है जो मुद्रित संस्करण में नहीं मिलता।११ कौटिल्य ने ६ गुणों की व्याख्या की है--१२ "सन्धि का अर्थ है व्यवस्था अथवा ऐक्य (मेल) स्थापित करना; विग्रह का अर्थ है विरोध कर लेना; आसन का तात्पर्य है उदासीनता का भाव; यान का अर्थ है (आक्रमण के लिए) तैयारी करना, संश्रय का तात्पर्य है (किसी शक्तिशाली राजा के यहाँ) आश्रय लेना तथा द्वैधीभाव का अर्थ है एक राजा से सन्धि करना तथा दूसरे से शत्रुता स्थापित करना।" कौटिल्य ने यह भी कहा है कि पड़ोसी राजा से हीन होने पर उससे सन्धि कर लेनी चाहिए, जो राजा उन्नति कर रहा हो उसे पड़ोसी से शत्रुता कर लेनी चाहिए,जो यह सोचे कि शत्रु मेरी हानि नहीं कर सकता और न मैं ही उसकी हानि कर सकता हूँ, तो उसे अपने राज्य में ही उदासीन बैठा रहना चाहिए, जो सब प्रकार से सुविधाजनक स्थिति में है वह अपने शत्रु पर आक्रमण कर सकता है, जो शक्तिहीन है उसे शक्तिशाली राजा का आश्रय ले लेना चाहिए तथा वह व्यक्ति द्वैधीभाव रख सकता है जिसकी कार्यसिद्धि मित्र द्वारा नहीं हो सकती। कुछ ग्रन्थों ने अधिक स्पष्ट परिभाषा दी है और द्वैधीभाव का अर्थ और ही बताया है, यथा--द्वधीभाव का अर्थ है अपनी सेना को दो भागों में बाँट देना । देखिए विष्णुधर्मोत्तर (२।१५०-३-५) एवं मिताक्षरा (याज्ञ० १।३४६) । १३ कुछ लोगों के मत से संश्रय का तात्पर्य है उदासीन या मध्यम (मध्यस्थ ) राजा की शरण जाना। कौटिल्य (७) ने छः गुणों की विशद व्याख्या की है और यही बात मनु (७।१६०), काम० (६-१६), विष्णुधर्मोत्तर (२।१४५१५०), अग्नि० (२४०), मानसोल्लास (पृ० ६४-११६), राजनीतिप्रकाश (पृ० ३२४-४१३) में भी पायी जाती है। मनु (७।१६२-१६८) ने लिखा है कि प्रत्येक गुण दो प्रकार का होता है । काम० (६।२-१८) एवं अग्नि० (२४०) ने सन्धि के १६ प्रकार बताये हैं और उनकी परिभाषा की है। कामन्दक की व्याख्या का आधार कौटिल्य (७३) है। कौटिल्य (७।३) का कहना है कि यदि दुर्बल राजा पर सबल राजा (मण्डल का नेता) आक्रमण कर दे तो पहले को तुरन्त झक जाना चाहिए और अपनी सेना, कोश, राज्य और स्वयं को उसे सौंप देना चाहिए। सेना उसके अधीन कर देने की बात पर सन्धि तीन प्रकार की होती है-आत्मामिष (अपनी सेना की उत्तम टोली लेकर स्वयं उपस्थित होना अर्थात स्वयं अपने को शिकार की भाँति उपस्थित कर देना), आत्मरक्षण (अपनी रक्षा करना, अर्थात स्वयं न जाना, सेनापति या यवराज के साथ अपनी सेना भेज देना) तथा अदष्टपुरुष (जिसमें किसी विशिष्ट व्यक्ति की चर्चा न हो, जिसमें यह तय पाया हो कि कोई भी राजा की ओर से या स्वयं राजा आक्रामक के इच्छानसार कहीं भी सेना लेकर चला आये)। इन सन्धियों को दण्डप्रणत (जिसमें सेना के साथ सन्धि की जाती है)सन्धि ११. तथा च गौतमसूत्रम् । चतुरुपायानवलम्ब्य सन्धिविग्रहयानासनद्वैधीभावसमाश्रयाख्यान्गुणान् परिकल्पयेत् । सरस्वतीविलास (पृ० ४२) । १२.पणबण्धः सन्धिः, अपकारो विग्रहः,उपेक्षणमासनम्, अभ्युच्चयो यानम्, परार्पणं संश्रयः, सन्धिविग्रहोपादानं द्वैधीभावः । इति षड्गुणाः । परस्माद्धीयमानः सन्दधीत । अभ्युच्चीयमानो विगृह्णीयात् । न मां परो नाहं परमुपहन्तु शक्त इत्यासीत । गुणातिशययुक्तो यायात् । शक्तिहीनः संश्रयेत् । सहायसाध्ये कार्ये द्वैधी भावं गच्छेत् । इति गुणावस्थापनम् । कौटिल्य (७१) । और देखिए रघुवंश (८।२१) जहाँ कालिदास ने लिखा है--'पणबन्धमुखान गुणानजः षडुपायुङ क्त समीक्ष्य तत्फलम् ।' १३. पणबन्धः स्मृतः सन्धिरपकारस्तु विग्रहः । जिगोषोः शत्र विषये यानं यात्रा विधीयते ।। विग्रहेपि स्वके देशे स्थितिरासनमुच्यते । बलार्धन प्रयाणं तु द्वधीभावं तदुच्यते ।। उदासीने मध्यमे वा संश्रयात्संश्रयः स्मृतः। विष्णुधर्मोत्तर (२।१५०।३-५); द्वैधीभावः स्वबलस्य द्विधाकरणम् । मिता० (याज्ञ० १।३४६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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