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धर्मशास्त्र का इतिहास
मकसद
मध्यम
की ओर संकेत किया गया है (दिसप्ततिप्रकृतिपत्नः नयवनस्पतिः )। मण्डल के मूल में राज्यों के बीच शक्तिसन्तुलन स्थापित करने की बात निहित है, कुछ राज्यों के बीच में मित्रता रहेगी तो स्वभावतः कुछ राज्य विरोधी भावों
से प्रेरित हो एक गुट में मिल जायेंगे । कौटिल्य (६२) ने भी अरिमिन मित्र
७२ संख्या की ओर संकेत किया है, जिसमें १२ तो राजाओं द्वारा व्यवस्थित (राज-प्रकृति) हैं और ६० (१२ के साथ प्रत्येक में
५ राज्य-तत्त्वों के समावेश) को द्रव्य-प्रकृति कहा जाता है। मित मित्र
शान्तिपर्व (५६७०-७१) में भी १२ राजाओं के मण्डल एवं
७२ की संख्या की ओर संकेत है। इस विषय में विशेष अध्ययन अरिमित्र
के लिए देखिए श्री एन० एन० ला की प्रसिद्ध पुस्तक 'स्टडीज इन ऐंश्येण्ट हिन्दू पालिटी', पृष्ठ १६५-२०८ । सम्भावनाओं के
आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी राजा के पड़ोसी राजा मिन्न
लोग उसके अरि होते हैं और दूर-दूर के राजा लोग साथी । इससे
यह निर्देश मिलता है कि स्थान एवं सम्भावनाओं के आधार पर अरि
ही कूटनीति का भवन खड़ा होता है। (वाम भाग की सूची से मण्डल-सिद्धान्त और स्पष्ट हो जायगा)।
__मनु (७।१७७ एवं १८०) ने घोषित किया है कि राजा को विजिगीषु
चाहिए कि वह अपने साधनों को इस प्रकार व्यवस्थित कर दे
कि उसके मित्र, उदासीन एवं शत्रु उसकी हानि न कर सकें या पाणिग्राह
उससे उच्च न हो जायँ । मेधातिथि (मनु ७।१७७) ने लिखा है कि स्वार्थ आ पड़ने पर मित्र भी शत्रु हो जाता है (स्वार्थगतिवशाच्च
मित्रमप्यरिर्भवति)।१० आक्रन्द
कौटिल्य (७३३) ने मण्डल-सिद्धान्त को शक्ति-सिद्धान्त एवं
पाडगण्य से सम्बन्धित किया है। राजा अपनी शक्तियों को जिस पाष्णिग्रा
सीमा तक कार्यान्वित करेगा उसी सीमा तक उसका एव उसके राज्य हासार
का कल्याण होगा । महत्वाकांक्षी राजा को अपनी शक्तियों के साथ
षड्-गुणों (नीति की विधियों) का उपयोग करना चाहिए। बारह आक्रन्दासार
राजाओं का मण्डल षड्-गुणों को उनके उपयोग की ओर अग्रसर करता
है । व्यातव्याधि (जिन्होंने केवल सन्धि एवं विग्रह को ही महत्ता दी है) से मतभेद प्रकट करते हुए तथा एक बार अन्य आचार्यों से मतैक्य स्थापित करते हुए कौटिल्य ने षड्-गुणों को मान्यता दी है और उनकी व्याख्या उपस्थित की है। सरस्वती विलास (पृ० ४२) ने गौतम का एक सूत्र उद्धृत किया
१०. विजिगीषुः शक्त्यपेक्षः षाड्गुण्यमुपयुजीत । कौटिल्य (७.३); षाड्गुण्यस्य प्रकृतिमण्डलं योनिः । सन्धिविग्रहासनयानसंश्रय धीभावाः षाड्गुण्यमित्याचार्याः । कौटिल्य (७।१); मण्डलानि समाचक्ष्व विजिगीषोयथाविधि । यान्याश्रित्य नृपः कार्य सन्धिविग्रहचिन्तनम् ।। विष्णुधर्मोत्तर (२।१४५।६)।
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