________________
शत्रु-मित्रों का मण्डल-सिद्धान्त दोनों से भिड़ सकता हो । उदासीन राजा वह है जो विजिगीषु के राज्य की सीमा से बहुत दूर राज्य करता हो, जो राज्यतत्त्वों से सम्पन्न हो और उपर्युक्त तीनों प्रकारों को सहायता दे सकता हो या उनसे भिड़ सकता हो। कुल्लूक (मनु०७।१५३) उपर्युक्त विवेचन को नहीं मानते। उनके अनुसार उदासीन वह शक्तिशाली राजा है जिसका राज्य विजिगीषु के राज्य के सम्मुख हो, पीछे हो या दूर हो और जो किसी कारणवश या विजिगीषु के कार्य-कलापों के कारण उदासीन हो उठा हो । मिताक्षरा (याज्ञ० १।३४५) का कथन है कि उदासीन भी तीन प्रकार का होता है और प्राकृत उदासीन उस राज्य का स्वामी होता है जो विजिगीषु के राज्य से दो राज्यों द्वारा पृथक हो, मध्यम (नीतिवाक्यामृत १० ३१८ के अनुसार मध्यस्थ) वह है जो विजिगीषु तथा उसके अरि का पड़ोसी हो, किन्तु कुछ कारणों से दोनों के आपसी मतभेद या युद्ध से तटस्थ रहना चाहता हो।
अब तक के विवेचन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि विजिगीषु अरि, मध्यम एवं उदासीन स्वतंत्र श्रेणियों के द्योतक हैं और अन्य शेष चार, यथा--मित्र, मित्रमित्र, आक्रन्द, आनन्दासार विजिगीषु को श्रेणियों के तथा आगे वाले शेष चार, यथा---अरिमित्र, अरिमित्रमित्र, पाणिग्राह एवं पाणिग्राहासार अरि की श्रेणियों के द्योतक हैं। इसी लिए मनु (७।१५५-१५६) ने मण्डल-सिद्धान्त के मूल में चार प्रकृतियों, यथा--विजिगीषु, शन्नु, मध्यम एवं उदासीन को रखा है और कामन्दक (८।२६) ने मय के उद्घोष का उल्लेख किया है कि मण्डल में ये ही चार पाये जाते हैं। कामन्दक (८।८६) के अपने मत से मण्डल में मित्र, उदासीन एवं रिपु पाये जाते हैं। कौटिल्य के मत से उपर्युक्त बारह प्रकृतियाँ मण्डल में पायी जाती हैं। उशना का भी यही मत है (काम० ८।२२ एवं ८।४१); उन्होंने बारह प्रकृतियों को माना है और अन्य शास्त्रियों के विभिन्न मतों की ओर संकेत भी किया है। कामन्दक (८१२०-४१) ने मण्डल के तत्त्वों एवं राज्य के तत्वों के विभिन्न सम्मिलनों के आधार पर विभिन्न ग्रन्थ कारों के मत प्रकाशित किये हैं और कहा है कि इस प्रकार के सम्मिलनों से मण्डल में १८, २६, ५४, ७२, १०८ प्रकृतियों एवं अन्य सदस्यों का समावेश हो जाता है। सरस्वतीविलास (पृ० ३७-४१) ने भी उशना द्वारा प्रकाशित विभिन्न मतों का उल्लेख किया है और लिखा है कि इस प्रकार प्रकृतियों की संख्या १, २, ३, १०, २१, १०८ हो जाती है । अन्य ग्रन्थकारों ने भी ४, ५, ६, १४, १८, ३०, ३६, ४४, ६०, ७२ प्रकृतियों का उल्लेख किया है। मनु (७।१५७) ने भी राज्यतत्त्वों को मण्डल के बारह सदस्यों से मिलाकर ७२ संख्या बतायी है । ६ दशकुमारचरित (८, पृ० १४४) में भी ७२ प्रकृतियों
____७. अरिविजिगीष्वोभूम्यनन्तरः संहतासंहतयोरनुग्रहसमर्थो निग्रहे चासंहतयोर्मध्यमः । अरिविजिगीषुमध्यानां बहिः प्रकृतिभ्यो बलवत्तरः संहतासंहतानामरिविजिगीषुमध्यमानामनुग्रहे समर्थो निग्रहे चासंहतानामुदासीनः । कौटिल्य (६।२, पृ० २६१) ; देखिए अग्नि० (२४०।३-५) एवं विष्णुधर्मोत्तर (२।१४५।११-१२)--मण्डलाद् बहिरेतेषामुदासीनो बलाधिकः । अनुग्रहे संहतानां व्यस्तानां च वधे प्रभुः।अग्नि० (२४०१४-५)। यही बात सरस्वतीविलास (प.० ३६) में भी उद्धृत है।
८. देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० ११३४५) 'पाणिग्राहाक्रन्दासारादयस्त्वरिमित्रोदासीनेष्वेवान्तर्भवन्ति संज्ञाभेदमात्र ग्रन्थान्तरे दशितमिति योगीश्वरेण न पृथगुक्ताः।' इतिप्रकारं बहुधा मण्डल परिचक्षते । सर्वलोकप्रतीतं तु स्फुटं द्वादशराजकम् ।। काम०/८।४१) । यही बात सरस्वतीविलास (१०४१)में उशना के श्लोक के रूप में उद्धत है।
६. एवं चतुर्मण्डलसंक्षेपः । द्वादश राजप्रकृतयः षष्टिव्यप्रकृतयः संक्षेपेण द्विसप्ततिः । तासां यथास्वं सम्पदः शक्तिः सिद्धिश्च । बलं शक्तिः, सुखं सिद्धिः । शक्तिस्त्रिविधा । कौटिल्य (६।२, पृ० २६१); मण्डलस्था च या चिन्ता राजन् द्वादशराजिका । द्विसप्ततिमतिश्चैव प्रोक्ता या च स्वयम्भुवा । शान्ति० (५६७०-७१)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org