________________
धर्मशास्त्र का इतिहास यातव्य कहा जाता है और उस पर आक्रमण किया जा सकता है । जिसका कोई आश्रय न हो या जिमका आश्रय दुर्बल हो, उसका नाश कर देना चाहिए; किन्तु उस शत्रु को, जो बलशाली हो या आश्रय वाला हो, तंग कर देना चाहिए, उसकी शक्ति क्षीण कर देनी चाहिए। आश्रय का तात्पर्य है शक्तिशाली दुर्ग या अच्छा मिन (काम० ८।६०)। इस प्रकार शत्रु के चार प्रकार हुए; यातव्य, उच्छेद्य, पीडनीय एवं कर्शनीय । जिसके पास मन्त्र एवं शक्तिशाली सेना नहीं होती उसे पीड़ित होना पड़ता है। जिसके पास मन्त्र एवं सेना की प्रबलता होती है उसे कशित किया जाता है, अर्थात उसे दुर्बल बनाया जाता है।
शत्नु एवं मित्र के अन्य तीन प्रकार हैं---सहज, कृत्रिम एवं प्राकृत । सहज मिन वे हैं जो माता-पिता के सम्बन्ध से प्राप्त होते हैं, यथा मामा या मौसा के पुत्र आदि, कृत्रिम मित्र वे हैं जो प्राप्त किये जाते हैं, अर्थात् जो विजिगीषु को अपनी सहायता से अनुगृहीत करते हैं या जो स्वयं अनुगृहीत होते हैं, तथा प्राकृत मित्र वे हैं जो पड़ोसी राजा की सीमा से सटे हों (वे मण्डल-सिद्धान्त के अन्तर्गत एक तत्त्व (प्रकृति) माने जाते हैं, इसी से उन्हें प्राकृत कहा जाता है)। सहज शत्रु वह है जो अपने ही कुटुम्ब में उत्पन्न हुआ हो, यथा विमाता-पुत्र, कृत्रिम वह है जो विरोधी है अथवा विरोधभावनाएँ बढ़ाता रहता है (जिसने हानि की हो या जिसकी हानि स्वयं विजिगीषु ने कर डाली हो), तथा पड़ोसी राजा प्राकृत शत्रु है । मिताक्षरा (याज्ञ० १।३४५) ने उपर्युक्त बातों पर प्रकाश डाला है।५ विष्णुधर्मोत्तर (२।१४५। १५-१६) एवं अग्निपुराण (२३३।२१-२२) के मत से प्राकृत वास्तव में कृत्रिम है। कामन्दक (८1५६) ने भी केवल सहज एवं कृत्रिम का ही वर्णन किया है।
विजिगीषु बहुत से राजाओं से घिरा रहता है, किन्तु जो अरि है वह विजिगीषु के पुरस्तात् (सम्मुख ) कहा जाता है । अतः विजिगीषु के सम्मुख क्रम से अरि (पड़ोसी शत्र), मित्र (अरि की सीमा से सटे राज्य वाला राजा), अरि-मित्र (अरि का वह मित्र जो विजिगीषु के मित्र की सीमा का हो), मित्र-भित्र (मित्र का मित्र) तथा अरि-मित्रमित्र (शत्रु के मित्र का मित्र ) आते हैं । जब अरि विजिगीषु के सम्मुख रहता है तो विपरीत दिशा के राज्य का शासक पश्चात् होता है और उसे पाणिग्राह (वह जो पीछे से पकड़ सके या आक्रमण कर सके) कहा जाता है । वह वास्तव में शत्रु है, किन्तु यह उपाधि केवल उसी के लिए है। ऐसा शन्न अभियान के समय या जब विजिगीष कहीं आक्रम रहा हो, तब विपत्ति खड़ी कर देता है। पाणिग्राह के आगे के राज्य के राजा को आकन्द (जिसकी सहायता प्राप्त करने के लिए विजिगीष प्रार्थना कर सकता है या उभाड़ सकता है) कहा जाता है। आक्रन्द वह मित्र है, जो पाणिग्राह की सीमा से सटा रहता है। पाणिग्राह के मित्र (जो आक्रन्द से सटा रहेगा) को पाणिग्राहास प्रकार आक्रन्द के मित्र को आक्रन्दासार कहा जाता है। उसे मध्यम कहा जाता है जिसका राज्य विजिगीष तथा अरि की राज्य-सीमा से सटा हुआ हो, और जो दोनों अर्थात् विजिगीषु तथा उसके शत्रु (अरि) को सहायता दे सकता हो, या
५. अरिसम्पद्युक्तः सामन्तः शत्रुः । व्यसनी यातव्य अनपायो दुर्बलाश्रयो वोच्छेदनीयः । विपर्यये पीडनीयः कर्शनीयो वा । कौटिल्य (४१२); अरिः पुनश्चतुर्विधः । यातव्योच्छेत्तव्यपीडनीयकर्शनीयभेदेन । तत्र यातव्योऽनन्तरभूमिपतिः व्यसनी हीनबलो विरक्तप्रकृतिः । विदुर्गो मित्रहीनो दुर्बलश्चोच्छेत्तव्यः । पीडनीयो मन्त्रबलहीनः । प्रबलमन्त्रबलयुक्तः कर्शनीयः । निर्मूलनात्समुच्छेदं पोडनं बलनिग्रहम् । कर्शनं तु पुनः प्राहुः कोशदण्डापकर्शनात् ॥ मिताक्षरा (याज्ञ० १।३४५) । ये भेद सरस्वतीविलास (पृ० ३६) में उद्धृत हैं।
६. यो विजिगीषौ प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात्कोपं जनयति स पाणिग्राहः । पाणिग्राहाद्यः पश्चिमः स आक्रन्दः पाणिग्राहमित्रमासार आक्रन्दमित्रं च । नीतिबाक्यामृत (पृ० ३१६) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org