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________________ शत्रु-मित्रों का मण्डल-सिद्धान्त ६८६ ७६) के अनुसार मित्र राजा के गुण ये हैं-हृदय की पवित्रता (स्वच्छता), उदारता, वीरता, सुख-दुःख में साथ देना, प्रेम, (मित्र का कार्य सम्पन्न करने में) जागरूकता, सचाई। सच्चे मित्र को विशेषता है मित्र द्वारा वांछित उद्देश्यों के प्रति श्रद्धा । मित्र बनाने का उद्देश्य होता है धर्म, अर्थ एवं काम नामक तीन पुरुषार्थों में से किसी एक की प्राप्ति (काम० ४।७२)। उपर्युक्त चर्चा के सिलसिले में मण्डल-सिद्धान्त की व्याख्या कर देना आवश्यक है। कौटिल्य (६।२ एवं ७ प्रकरण), मनु (७।१५४-२११), आश्रमवासिक पर्व (६-७), याज्ञ० (१।३४५-३४८), काम० (८-६), अग्नि० (२३३ एवं २४०), विष्णुधर्मोत्तर (२।१४५-१५०), नीतिवाक्यामृत (पृ० ३१७-३४३), राजनीतिप्रकाश (पृ०३१३३०), नीतिमयूख (पृ० ४४-४६) आदि ने मण्डल के सिद्धान्त एव छः गुणों पर विस्तार के माथ प्रकाश डाला' है। इन ग्रन्थों में कौटिलीय अर्थशास्त्र सम्भवत: सबसे पुराना है, अतः हम मण्डल-सिद्धान्त के विवेचन में प्रमुखतः उसी का सहारा लेंगे। नीतियाक्यामृत (पृ० ३११-३१३) ने तो कौटिलीय के शब्दों को ज्यों-का-त्यों उद्धृत कर डाला है। शम (शान्ति) एवं व्यायाम (उद्योग) पर राज्य का योगक्षेम निर्भर रहता है। व्यायाम अर्थात् उद्योग से हाथ में लिये हुए कार्य की पूर्ति होती है और शम से किये हुए कार्य से उत्पन्न फल का शान्तिपूर्वक उपभोग होता है। छ: गणों (सन्धि आदि) के सम्यक उपयोग से ही शम एवं व्यायाम उभरता है। छ: गणों से जो फल-प्राप्ति (उदय) होती है वह या तो सत्यानाश या गतिरोध या उन्नति के रूप में परिणत होती है। उदय मानवीय एवं दैविक कारणों पर निर्भर रहता है, क्योंकि इन्हीं दोनों के आधार पर विश्व का शासन चलता है। मानवीय कारण हैं नय एवं अपनय । मानवीय कारणों की जानकारी हो सकती है और वे कार्य रूप में परिणत भी होते हैं । नय (अच्छी नीति) उन मानवीय कारणों का फल है जिनसे ( राज्य का) योगक्षेम प्राप्त होता है; अपनय (अविनम्र नीति) से हानि होती है । कौटिल्य (६।१) का कथन है कि जो राजा नय को समझता है और आत्मगुणों एवं राज्य-तत्त्वों (प्रकृतियों) से सम्पन्न है वह सम्पूर्ण संसार को विजय कर सकता है, भले ही वह एक छोटे राज्य का ही अधिकारी क्यों न रहा हो। विजिगीषु (विजय की अभिलापा रखने वाले या विजय करने वाले) के सम्बन्ध में ही मण्डल सिद्धान्त की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । कामन्दक (८१६) ने विजिगीषु की परिभाषा यों की है--४“जो अपने राज्य का विस्तार करना चाहता है, जो राज्य के सातों तत्त्वों से सम्पन्न है, जो महोत्साही है और जो उद्योगशील है, वह विजिगीषु कहलाता है ।" सभी ग्रन्थों में इस बात की चर्चा है कि राजा के लिए अपने दुर्बल पड़ोसियों को धर-दबाना एवं विजयाकांक्षी होना एक आदर्श है। विजिगीषु वही कहलाता है जो अच्छे गुणों (आत्मसम्पत्) से सम्पन्न हो और राज्य के विभिन्न तत्त्वों (प्रकृतियों से परिपूर्ण हो । उसे नय-स्रोत होना चाहिए, अर्थात् उसकी नीति अच्छी हो जिसके बल पर वह सफलता की सीढ़ी पर चढ़ता जाय । विजिगीषु की राज्य-सीमाओं पर रहने वाले राजा अरि कहलाते हैं। इससे प्रकट है कि अरि कई हो सकते हैं । किन्तु इस विषय में नीतिवाक्यामृत (पृ० ३२१) का यह कथन स्मरण रखना चाहिए कि यह कोई नियम नहीं होना चाहिए कि पड़ोसी सदा अरि ही हो और दूर का राजा मित्र ही। सान्निध्य एवं दूरी शत्रुना एवं मित्रता के कारण नहीं हैं, बल्कि उद्देश्य ही मुख्य है जिसके फलस्वरूप मित्र या शत्रु बनते हैं । हाँ, पड़ोसी राजा बहुधा अरि हो जाते हैं। मित्र वह है जो विजिगीषु के पड़ोसी शत्रु राजा की सीमा के उस पार हो । शत्रु वह है जो पड़ोसी हो और जो शत्रु-गुणों से सम्पन्न हो । देखिए कौटिल्य (६।१) । यातव्य (जिस पर विजिगीषु आक्रमण करता है) वह अरि है जो कठिनाइयों से ग्रस्त हो गया है । शन्नु वह अरि है जो आक्रमण का अवसर देता है। उस शत्रु को, जो विपत्तियों में फंस गया है, ४. संपन्नस्तु प्रकृतिभिर्महोत्साहः कृतश्रमः । जेतुमेषणशीलश्च विजिगीषुरिति स्मृतः ॥ कामन्दक (८६)। १५ www.jainelibrary.org Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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