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अध्याय
सुहृद्या मित्र ( ७ )
मनु ( ७।२०८ ) ने मित्र बनाने की आवश्यकता पर बहुत बल दिया है और राजा के लिए अच्छे मित्र (सुहृद् ) के गुणों का वर्णन किया है--"राजा सोना एवं भूमि पाकर उतना समृद्धिशाली नहीं होता जितना कि अटल मित्र पाकर ; भले ही वह (मित्र) कम धन ( कोश) वाला हो, क्योंकि भविष्य में वह शक्तिशाली हो जायगा । एक दुर्बल मित्र भी श्लाघनीय है यदि वह गुणवान् एव कृतज्ञ हो, उसकी प्रजा सन्तुष्ट हो और वह अपने हाथ में लिये हुए कार्य को अन्त तक करने वाला अर्थात् दृढ प्रतिज्ञ हो ।” मनु (७।२०६ ) के मत से "भूमि, सोना (हिरण्य) एवं मित्र" राजा की नीति या प्रयत्नों के तीन फल हैं । याज्ञ० (१।३५२ ) ने भी मनु ( ७/२०८ ) बात मानी है । किन्तु कौटिल्य (७६) ने इस विषय में कुछ दूसरी ही बात कही है - १ 'भूमिलाभ हिरण्यलाभ एवं मित्रलाभ से श्रेयस्कर है तथा हिरण्यलाभ मित्रलाभ से श्रेयस्कर है ।' महाभारत (शान्ति० १३८ । ११० ) का कथन है कि कोई भी किसी का न मित्र है न शत्रु मित्र एवं शत्रु धन ( या किसी व्यक्ति द्वारा किये जाते हुए कर्मों या ध्येयों) द्वारा प्राप्त किये जाते हैं । यही बात कामन्दक ( ८।५२ ) ने भी कही है। शुक्र ० ( ४1१1८-१० ) का कथन है- “ शक्तिशाली, साहसी एवं विनम्र के सामने अन्य लोग ऊपर से मित्रवत् व्यवहार करते हैं, किन्तु भीतर-भीतर शत्रुता रखते हैं और अवसर की ताक में लगे रहते हैं ( कि कब आक्रमण कर दें ) । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । क्या वे स्वयं भूमि की विजय - लिप्सा नहीं रखते ? राजा का कोई मित्र नहीं और न वह किसी का मित्र है ।" शान्ति० (८०1३) के
मत से मित्र चार प्रकार के होते हैं -- ( १ ) समान ध्येय वाले, (२) शरण एवं सुरक्षा चाहने वाले, (३) स्वभाव से ही जो सुहृद हैं (सहज) तथा (४) वे जो प्राप्त किये जाते हैं ( कृत्रिम ) । कर्ण पर्व (८८२८) ने मित्र के चार प्रकार विभिन्न ढंग से दिये हैं- (१) सहज, ( २ ) जो प्रसन्नतादायक शब्दों द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, (३) जो धन द्वारा जीते जाते हैं तथा ( ४ ) वे जो शक्ति द्वारा आकृष्ट किये जाते हैं। कामन्दक (४/७४) के मत से चार प्रकार ये हैं-(१) औरस अर्थात् जन्म-जात (यथा माता, पिता, नाना, नानी आदि), कृतसम्बन्ध ( विवाह सम्बन्ध से उत्पन्न ), वंशक्रमागत ( पिता के मित्र) एवं (४) रक्षित अर्थात् विपत्तियों से जिनकी रक्षा की गयी हो । कामन्दक ( ४७५
१. संहितप्रयाण मित्रहिरण्यभूमिलाभानामुत्तरोत्तरा लाभः श्रयान् । मित्रहिरण्ये हि भूमिलाभाद् भवतः । मित्रहिरण्यनाभावो वा लाभः सिद्धः शेषयोरन्यतरं साधयति । कौटिल्य ७६ ।
२. न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्कस्यचित्सुहृत् । अर्थतस्तु निबन्ध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ शामिल० ( १३८|११० ) ; कारणेन हि जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा । कामन्दक ( ८1५२ ) ; नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं नाम न विद्यते । सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा । विष्णुधर्मोत्तर ( २।१४५ = शान्ति ० १४० | ५ ) ; न राज्ञो विद्यते मित्रं राजा मित्र न कस्य वै । शुक्र० (४|१|६) ।
३. सहार्थो भजमानश्च सहजः कृत्रिमस्तथा । शान्ति० (८०१३) । भजमान का अर्थ 'पितृपितामहक्रमागत' मी हो सकता है तथा सहज मित्र वे हैं जो सम्बन्ध से प्राप्त होते हैं, यथा अपनी मा की बहन के पुत्र ( मौसी के पुत्र) आदि । औरसं कृतसम्बन्धं तथा वंशक्रमागतम् । रक्षितं व्यसनेभ्यश्च मित्रं ज्ञेयं चतुविधम् ॥ काम० (४/७४) ।
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