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अस्त्र-शस्त्र; बल-प्रकार
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(वे अस्त्र जो पुनः लौटाये नहीं जा सकते) । अग्निपुराण (२४६-२५२) एवं विष्णुधर्मोत्तर(२।१७८-१८२) ने धनुर्वेद (दोनों ने शब्दशः एक ही बात कही है, किन्तु दूसरी पुस्तक में कुछ अधिक श्लोक हैं) का निष्कर्ष दिया है और आयुधों के पाँच प्रकार बताये हैं--यन्त्रमूक्त (किसी यन्त्र या मशीन, यथा ढेलवाँस, धनष आदि से फेंके जाने वाले आयध), पाणिमुक्त (हाथ से फेके जाने वाले, यथा पत्थर या तोमर), मुक्तामुक्त (प्रास के समान), अमुक्त (तलवार के समान) एवं नियुद्ध या बाहुयुद्ध (कुश्ती या मल्लयुद्ध) । अस्त्रों का विज्ञान अलौकिक प्रकार का था। महाकाव्यों एवं पुराणों में आया है कि महारथी लोग अस्त्र-विद्या का ज्ञान गुरु से या अपने पिता से या तपस्या से प्राप्त करते थे; कभीकभी (जैसा कि लव-कुश के अस्त्र-ज्ञान से पता चलता है) कुछ अस्त्रों का ज्ञान पुत्र को जन्मजात या पिता की कांक्षा के कारण हो जाया करता था। धनुर्वेद की चर्चा पौराणिक चर्चा मान ही है, कोई लिखित पुस्तक नहीं रही है जिसके पढ़ने मात्न से कोई महारथी या योद्धा उस शास्त्र में प्रवीण हो जाय । अग्निपुराण (१३४-१३५) रण-विजय एवं विश्व-विजय के विषय में कुछ मन्त्र भी देता है । परशुरामप्रताप (राजवल्लभकाण्ड ६-१२) में बहुत-से मन्त्रों, यन्त्रों एवं मायावी उपायों का वर्णन है जो ब्रह्मयामल नामक तन्त्र-ग्रन्थ से लिये गये हैं।
महाभारत ने बड़ी सावधानीपूर्वक यह संकेत किया है कि सेना बल (शक्ति) का निकृष्ट प्रकार है। उद्योग पर्व (३७४५२-५५) का कहना है कि बल के पाँच प्रकार होते हैं; (१) बाहुबल, (२) अमात्यलाभ (वह बल जो अमात्यों की प्राप्ति से हो), (३) धनलाभ (वह शक्ति या बल जो धन से प्राप्त होता है), (४) अभिजातबल (वह शक्ति जो अच्छे कुल में उत्पन्न होने से होती है) तथा (५)प्रज्ञाबल (ज्ञान से प्राप्त बल) जो सर्वोत्तम कहा जाता है। यह उपर्युक्त बात बुधभूषण (पृ० ७६) द्वारा उद्धृत है। शान्तिपर्व (१३४।८) में आया है कि शक्तिशाली के आगे कुछ भी असम्भव नहीं है, अर्थात् वह सब कुछ कर सकता है, और वह जो कुछ करता है वह पवित्र है।११ एक अन्य स्थान पर आया है--"शक्तिशाली के लिए सब कुछ शुचि है" (आश्रमवासिक० ३०।२४) । आदिपर्व ( १७५५४५) में योद्धा की शक्ति की भर्त्सना की गयी है और ब्राह्मणों की आध्यात्मिक शक्ति (ब्रह्मतेज) को वास्तविक शक्ति कहा गया है।
११. यद् बलानां बलं श्रेष्ठं तत्प्रज्ञाबलमुच्यते । उद्योग०(३७१५५); नास्त्यसाध्यं बलवतां सर्व बलवतां शुचि। शान्ति० (१३४१८); सर्व बलवतां पथ्यं सर्व बलवतां शुचि। सर्व बलवतं धर्मः । सर्व बलतता स्वकम् ॥ आश्रमवासिक. (३०।२४); धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् । बलाबले विनिश्चित्य तप एव पर बलम् ॥ आदि० (१७५५४५४६) । ये वचन प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक नीत्शे (Nietzsche; 'Beyond Good and Evil', Section 29) के वचन के सदृश हैं; "केवल थोड़े से ही व्यक्ति स्वतन्त्र रहने का अधिकार रखते हैं। यह शक्तिशाली का विशेषाविकार है" (It is the business of the very few to be independent; it is a privilege of the strong. translated by H. Zimmern) ।
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