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धर्मशास्त्र का इतिहास के मोलक छोड़ने की ओर संकेत किया है। देखिए डा० ओप्पर्ट का ग्रन्थ "वेपंस, आर्मी आर्गनाइजेशन एण्ड पोलिटिकल मैक्जिम्स आव द ऐंश्येण्ट हिन्दूज" (१८८०), जहाँ उन्होंने भाँति-भाँति के आयुधों का वर्णन किया है और विश्वास किया है कि १३वीं शताब्दी के बहुत पहले से भारत में बारूद का प्रयोग होता रहा है। इस विषय में श्री जी ० टी० दाते की पुस्तक “आर्ट आव वार इन ऐंश्येण्ट इण्डिया" (लंदन १६२६), डा० पी० सी० चक्रवर्ती का ग्रन्थ (१६४१, ढाका) एवं प्रो० दीक्षितार की स्पुतक (इसी विषय की) अवलोकनीय हैं। महाभारत (उद्योगपर्व १५५।३-६) में बहुत-से आयुधों का वर्णन है, जिसे हम स्थानाभाव से यहाँ उल्लिखित नहीं कर रहे हैं। विस्तार से अध्ययन के लिए देखिए हाप्किन्स का लेख (जे० ए० ओ० एस०, जिल्द १३, पृ० २६६-३०३)। प्रयाग के स्तम्भ पर समुद्रगुप्त की प्रशस्ति (चौथी शताब्दी ई०) में भी आयुधों की एक सूची है (कार्पस इंस्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम्, जिल्द ३, पृ० ६-७) ।१० शुक्र० (२०६३। ११६६; ४१७४२०८) ने अग्निचूर्ण (बारूद) एवं बन्दूक (४।७।२०६-२१६) की ओर संकेत किया है और बारूद का सूत्र (फार्मूला) भी दिया है (यथा--यवक्षार का पाँच पल, गंधक का एक पल एवं कोयले के चूर्ण का एक पल मिलाकर बारूद या आग्ने यचूर्ण बनाया जाता है)। शुक्रनीतिसार सम्भवत: १३ वीं या १४ वीं शताब्दी में लिखित है, जब कि यूरोप में आग्नेयास्त्र (कैनन) सर्वप्रथम प्रयोग में लाया गया था। रामायण एवं महाभारत में शतघ्नी का उल्लेख बहुत बार हुआ है। शतघ्नी से सौ व्यक्ति मर जाते थे। युद्धकाण्ड (३।१३) में आया है कि लंका के द्वारों पर देखने में भयंकर, तीक्ष्ण एवं काल-समान सैकड़ों लोहे की शतनियाँ राक्षसों द्वारा सजायी गयी थीं। सुन्दरकाण्ड (२।२१-२२)में कवित्वपूर्ण ढंग से कहा गया है कि लंका में शतघ्नियाँ एवं शूल लंका के सिर के केशों के समान थे। वनपर्व (१५) में शाल्व द्वारा घिरी हुई द्वारवती (द्वारका) का वर्णन है जहाँ कहा गया है कि राजधानी में बहुत-गे स्तम्भ एवं शिरोगृह (प्रासाद के शृंग या शिखर), यन्त्र, तोमर, अकुश, शतघ्नी आदि थे । आदि० (२०७।३४), वन ० (१६६।१६, २८४१५,२६०।२४), द्रोण (१५६१७०), कर्ण० (११।८), शल्य० (४५।११०) में शतघ्नी का उत्लेख है। किन्तु यह क्या था, बतलाना कठिन है । वनपर्व (२८४।३१) से पता चलता है कि हाथों द्वारा बड़े जोर से इसे फेंका जाता था, इसमें चक्र (पहिए), गोलक एवं प्रस्तर-खण्ड रहते थे । द्रोणपर्व (१७६१४६) में कहा गया है कि घटोत्कच की शतघ्नी में पहिए थे और वह चार घोड़ों को एक साथ मार सकती थी। द्रोणपर्व (१६६।१६) में पुनः आया है कि शतघ्नी में दो या चार पहिए होते थे । वनपर्व (२८४१४) में आया है कि सर्जरस (जलाने के लिए राल , एकत्र किया गया है। हरिवंश (भविष्यपर्व ४४।२२) में आया है कि हिरण्यकशिपु द्वारा नरसिंह पर फेंके गये अस्त्रों में जलती हुई शतघ्नियाँ भी थीं ( शतघ्नीभिश्च दीप्ताभिर्दण्ड रपि सुदारुणः)। रामायण (७॥३२॥४४) में आया है कि मुसल नामक आयुध के सिरे पर अशोक के फूलों के सदृश अग्नि जलती थी। सुन्दरकाण्ड (४।१८) ने शतध्नी एवं मुसल को एक साथ कर दिया है। सम्भवतः इनमें बारूद का प्रयोग नहीं होता था, क्योंकि शतघ्नियों से धूम निकलने की बात नहीं कही गयी है। हाप्किन्स (जे० ए ० ओ० एस्०, जिल्द १३, पृ० २६६-३०३) ने लिखा है कि बारूद एव बन्दूक का प्रयोग महाभारत के काल में नहीं होता था, और आज तक हमें जो कुछ पता चल सका है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि यह कथन ठीक ही है।
नीतिप्रकाशिका (अध्याय २-५) ने बहुत-से आयुधों का वर्णन किया है और उन्हें चार श्रेणियों में बाँटा है-- (१)मुक्त (फेंका या छोड़ा जानेवाला, यथा बाण),(२) अमुक्त (न छोड़ा गया, यथा तलवार),(३) मुक्तामुक्त (फेंका जाने वाला और न फेंका जाने वाला, यथा वे अस्त्र, जो फेंके जाने पर पुन: लौटाये जा सकते हैं) एवं (४) मन्त्रमुक्त
१०. "परशु-शर-शकु-शक्ति-प्रास-असि-तोमर-भिन्दिपाल-नाराच-वैतंसिकाद्यनेकप्रहरणविरूवालव्रणशतांकशोभासमदयोपचितकान्ततरवर्मणः" (गुप्त इस्क्रिप्शंस, पृ० ६-७)।
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