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________________ सैनिकों का युद्ध-व्यवहार; अस्त्र-शस्त्र वह स्वय तथा उसके मन्त्री एवं पुरोहित वेदों एवंसाहित्यिक ग्रन्थों से उद्धरण देकर सैनिकों को प्रेरणा दें कि स्वामी के लिए लड़ कर मर जाने से पुरस्कार एव पीठ दिखाकर भाग जाने से धार्मिक दण्ड मिलते हैं। ज्योतिषियों को शुभ ग्रहों की बातें कहकर प्रेरणा करनी चाहिए । युद्ध के एक दिन पूर्व राजा को उपवास करना चाहिए, अथर्ववेद के मन्त्रों के साथ अग्नि में आहुतियाँ देनी चाहिए और विजय सम्बन्धी कल्याणकारी श्लोक आदि सुनने चाहिए। चारणों को वीरों के लिए पुरस्कारों तथा कायरों के लिए नरक आदि दण्डों से सम्बन्ध रखने वाली कविताएँ सुनानी चाहिए तथा सैनिकों की जाति, श्रेणी, वंश, कर्तृत्व एवं चरित्र आदि की प्रशंसा के पुल बांधने चाहिए । पुरोहितों के सहायकों को घोषित करना चाहिए कि उन्होंने शत्रु के विरोध के लिए डाकिनियों एवं मायाविनियों को अपने वश में कर लिया है । सेनापति एवं उनके अन्य सहायकों को निम्नोक्त प्रकार से सेना के समक्ष भाषण करना चाहिए-"जो शत्रुपक्ष के राजा को मारेगा उसे एक लाख (पण) दिये जायेंगे, जो शत्रुपक्ष के सेनापति या युवराज को मारेगा उसे पचास सहस्र (पण) दिये जायेंगे . . . .पत्ति (बटालियन) के अध्यक्ष को मारने पर एक सौ, साधारण सैनिक को मारने वाले को बीस (पण) तथा सभी सैनिकों को लूटे हुए माल तथा उनके वेतन का दुगुना मिलेगा।" कामन्दक (१६।१८-२१) का कहना है कि जब सैनिक अपनी वीरता प्रदर्शित कर चुकें तो उन्हें पूर्वकथित पुरस्कारादि दे देने चाहिए। इस विषय में और देखिए मानसोल्लास (२।२०, श्लोक ११६३-११६७, पृ० १३३-१३४) । गौतम (१०।२०-२३) ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई सैनिक व्यक्तिगत रूप से सम्पत्ति प्राप्त कर ले तो राजा को उसे सब कुछ दे देना चाहिए किन्तु घोड़ा या हाथी आदि ले लेना चाहिए, किन्तु यदि कई सैनिक साथ मिलकर कुछ प्राप्त करें तो राजा को चाहिए कि वह सर्वोत्तम वस्तु लेकर शेष को सैनिकों की सेना के अनुसार उसमें बांट दे । मनु (७६६-६७) ने तो रथ, घोड़े या हाथी सैनिकों को ही दे देने को कहा है, यहाँ तक कि दासियाँ तक सैनिकों के पास रह सकती हैं, केवल सोना, चाँदी तथा अन्य रत्न आदि राजा को मिल जाने चाहिए । और देखिए काम० (१६।२१-२२) तथा शुक्र० (४७१३७२)। अस्त्र-शस्त्र प्राचीन काल के आयधों के विषय में भली भांति चर्चा करने के लिए एक पथक ग्रन्थ के प्रणयन की आवश्यकता पड़ेगी । ऋग्वेद में भी कतिपय आयुधों या अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख हुआ है, यथा-ऋष्टि (ऋ० ५।५२।६, ५१५७।२ एवं ६, यह मरुतों के कंधों पर रहता था), बाण (५०५७।२, ६।७५।१७), तूणीर (१५७।२), अंकुश (इन्द्र का,८।१७.१०, १०१४४।६), परशु (१०।२८।८), कृपाण (१०।२२।१०), वज्र (अयस् से निर्मित,१०४८।३,१०।११३१५)। अथर्ववेद ने विषाक्त बाणों का उल्लेख किया है (४।६।६)। अथर्ववेद (१।१६।२ एवं ४) में सीसे के किसी हथियार का वर्णन है--"यदि तुम हमारी गाय या अश्व या पुरुष को मारोगे तो हम लोग सीसे से भोंक देंगे और तुम हमारे शक्तिशाली सैनिकों को मारना बन्द कर दोगे।" तैत्तिरीयसंहिता(१।५।७६)में कहा गया है कि जब अग्नि में समिधा "इन्धानास्त्वा शतं हिमाः" नामक मन्त्र कहकर डाली जाती है तो यजमान अपने शत्रु के प्रति शतघ्नी (वह आयुध जो सैकड़ों को मारता है) छोड़ता है जो स्वयं वज्र के समान कार्य करती है। डा० ओप्पर्ट ने नीतिप्रकाशिका की भूमिका(पृ० १०-१३) में उपर्युक्त तथा अन्य उक्तियों के आधार पर यह उदघोष किया है कि प्राचीन भारतीय आग्नेय अस्त्र जानते थे और अथर्ववेद (१।१६।४) ने वर्तुलाकार वस्तुओं से सीसे ते तुल्या इति वसिष्ठजोब्रवीत् ॥ युध्यन्ते भूभृतो ये च भूम्यर्थमेकचेतसः। इष्टस्ते बहुभिर्यागैरेव यान्ति त्रिविष्टपम् ।। बृहत्पराशर १०, पृ० २८१ । (वसिष्ठज का तात्पर्य है पराशर)। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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