SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८४ धर्मशास्त्र का इतिहास धमकी दी जाती है । प्राचीन काल में युद्ध न करने वालों को अछूता छोड़ दिया जाता था। मेगस्थनीज (फेगमेण्ट १, पृ. ३२) ने लिखा है-"कृषकगण मस्ती से, निर्भय अपना कृषि-कर्म करते चले जाते थे और पास-पड़ोस में भयंकर युद्ध चला करते थे, क्योंकि युद्धलिप्त लोग उनको किसी प्रकार भी संग नहीं करते थे।"मनु (७।३२)ने राजा को अपने शत्रु के देश को तहस-नहस करने को आज्ञा दी है, किन्तु मेधातिथि ने इस कथन की व्याख्या में यह कहा है कि शत्रु के देश के लोगों की यथासम्भव, विशेषतः ब्राह्मणों की रक्षा करनी चाहिए । गदायुद्ध का नियम यह था कि नाभि के नीचे कोई भी वार न करे (शल्यपर्व ६०१६)। किन्तु 'भीम ने इस नियम का उल्लंघन किया और दुर्योधन की जाँघ पर गदा-प्रहार कर ही दिया । दुर्योधन ने कृष्ण एवं पाण्डवों के दुष्कर्मों का वर्णन किया है (शल्य० ६१) किन्तु कृष्ण ने मुंहतोड़ उत्तर दिया है कि उसने (दुर्योधन ने) कितनी ही बार नैतिकता की सीमाओं का उल्लंघन किया है और युद्ध नियम भंग किये हैं (यथा--अभिमन्यु को घेरकर एक ही समय बहुत लोगों द्वारा मरवाना)। सूर्यास्त के उपरान्त युद्ध बन्द हो जाता था, यह एक सामान्य नियम था (भीष्म० ४६।५२-५३)। किन्तु द्रोणपर्व (१५४ एवं १६३।१६) में हमें रात्रि-युद्धों का उल्लेख मिलता है और यह लिखा हुआ है कि (ऐसे अवसरों पर) रथों, हाथियों एवं घोड़ों पर दीपक रहने चाहिए। यह बात हमने देख ली है कि प्रत्येक क्षत्रिय एवं सैनिक का यह कर्तव्य था कि वह समरांगण में भले ही लड़ता मर जाय किन्तु भागे नहीं। पुरस्कारों का मोह दिलाकर युद्ध-प्रेरणा भरी जाती थी। पहला पुरस्कार था लूट-पाट का माल एवं भूमि की प्राप्ति (गौतम० १०॥४१, मनु ७।२०६, गीता २१३७); दूसरा था क्षत्रिय रूप में अपने कर्तव्य का पालन (गीता २।३१-३३), आदर-सम्मान एवं यश (गीता २॥३४-३५), स्वर्ग एवं अन्य भौतिक सुखों की प्राप्ति (याज्ञ० १। ३२४, मनु ७/८८-८६) तथा ब्राह्मणों की सुरक्षा (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।१०।२६।२-३)। विष्णुधर्मसूत्र (३।४४-४६) में भी ऐसी ही बातें कही गयी हैं । शान्ति० (६८।४०-४१) का यह कहना है कि जो सैनिक युद्ध-क्षेत्र से भाग खड़ा होता है वह नरक में गिर पड़ता है । याज्ञवल्क्य (१३३२४-३२५) का कहना है कि जो अपने देश की रक्षा के लिए बिना विषाक्त बाणों से लड़ता हुआ, बिना पीठ दिखाये समरांगण में मर जाता है वह योगियों के सगान स्वर्ग प्राप्त करता है, उस व्यक्ति का प्रत्येक पग, जो अन्य साथियों के मर जाने पर भी युद्ध-स्थल से नहीं भागता, अश्वमेध-जैसे यज्ञों के बराबर है; जो लोग युद्ध-क्षेत्र से भाग जाते हैं और अन्त में मार डाले जाते हैं उनके सभी अच्छे सुकृत राजा को प्राप्त हो जाते हैं। यही बात मनु (६५) में भी पायी जाती है । यह बात न केवल क्षत्रियों के लिए है, प्रत्युत सभी प्रकार के एवं जातियों के सैनिकों के लिए है । और देखिए राजनीतिप्रकाश (५४०७)। पराशर (३॥३१) एवं बृहत्पराशर(१०, पृ० २८१) का कहना है कि उस वीर के पीछे स्वर्ग की अप्सराएँ दौड़ती हैं और उसे अपना स्वामी बनाती हैं, जो शत्रुओं से घिर जाने पर भी प्राण-भिक्षा नहीं मांगता और लड़ता-लड़ता गिरकर मर जाता है; उसे न नाश होने वाले लोक प्राप्त होते है। कौटिल्य (१०१३) ने पराशर का ३।३६ श्लोक उदधृत किया है और प्रकट किया है कि सैनिकों को किस प्रकार युयुत्सु होने के लिए प्रेरणा दी जाती है। कौटिल्य (१०।३) ने राजा को सम्मति दी है कि ६. यं यज्ञसंघस्तपसाच विप्राः स्वर्गेषिणोयत्र यथैव यान्ति । क्षणेन यान्त्येव हि तत्र वीराः प्राणान् सुयुद्धेषु परित्यजन्तः।। पराशर ३।३६; कौटिल्य (१०॥३)ने दूसरे ढंग से उद्धरण दिया है । कौटिल्य में उद्धत दूसरा पद्य यों है:-- नवं शरावं सलिलस्य पूर्ण सुसस्कृतं दर्भकृतोत्तरीयम् । तत्तस्य या भून्नरकं च गच्छेद्यो भर्तृ पिण्डस्य कृते न युध्येत् ॥ यह उदरण प्रतिज्ञायौगन्धरायण (४२) में भी, जिसे सम्भवतः भास ने लिखा है, पाया जाता है । पराङ्मुखीकृते सैन्ये यो युद्धात निवर्तते । तत्पदानीष्टितुल्यानि भूत्यर्थमेकचेतसः ॥ शिरोहतस्य ये वक्त्रे विशन्ति रक्तविन्दवः । सोमपानेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy