________________
युद्ध सम्बन्धी नियम
६८३
(२।५।१०।१२), गौतम (१०।१७-१८), याज्ञ० (१।३२६), मनु (७।६०-६३), शान्ति० (६५७-१४, ६६।३०, ६८।४८.४६, २६७।४), द्रोण (१४३।८), कर्ण० (६०।१११-११३), सौप्तिक. (५।११-१२, ६।२१-२३), शंख (याज्ञ० १।३२६ की व्याख्या में मिताक्षरा द्वारा उद्धृत), बौधायनधर्मसूत्र (१।१०।१०-१२), वृद्ध-हारीत (७।२२६), वृहत्पराशर (1०, पृ० २८१), शुक्र० (४।७।३५४-३६२), युद्धकाण्ड (१८।२७-२८) आदि में युद्ध-सम्बन्धी बड़े उदात्त विचार व्यक्त किये गये हैं। इनमें से कुछ निम्नोक्त हैं।" गौतम (१०१७-१८) का कहना है कि "जिन्होंने अश्व, सारथि, आयुध खो दिये हों, जिन्होंने हाथ जोड़ लिये हों, जिनके केश विखर गये हों (भागते-भागते), जिन्होंने पोठ दिखा दी हो, जो भूमि पर बैठ गया हो, जो (भागते-भौगते) पेड़ पर चढ़ गया हो, जो दूत हो, जो गाय या ब्राह्मण हों; इनको छोड़कर किसी अन्य को समरांगण में मारना या घायल करना पाप नहीं है।" वृद्ध हारीत ने दर्शकों को भी वर्जित माना है। मनु (७६०-६३) ने घोषित किया है-"कपटपूर्ण या गुप्त आयुधों के साथ नहीं लड़ना चाहिए और न विषाक्त या शूलाग्र या जलती हुई नोकों वाले आयुधों से लड़ना चाहिए। युद्धलिप्त उसे न मारे जो उच्च भूमि पर चढ़ गया हो या जो हिजड़ा हो या जिसने (प्राण की रक्षा के लिए)हाथ जोड़ लिये हों, जो इतनी तेजी से भाग रहा हो कि उस के केश उड़ रहे हों, या जो भूमि पर बैठ गया हो और कह रहा हो “मैं तुम्हारा हूँ" जो सोया हुआ हो, जिसका कवच
हो, जो नंगा या बिना आयुध के हो गया हो, जो मात्र दर्शक हो, जो दूसरे शत्रु से लड़ रहा हो, जिसके आयुध टूट गये हों,जो दुखित हो या बुरी तरह घायल हो गया हो, जो डर गया हो और जो पीठ दिखाकर भाग चला हो।" शंख ने लिखा है कि पानी पीते हुए सैनिक को भी नहीं मारना चाहिए और न भोजन करते हुए या जता निकालते हुए को ही मारना चाहिए; स्त्री को, हथिनी को, सारथि को, भाट (चारण) को, ब्राह्मण को नहीं मारना चाहिए, और जो स्वयं राजा नहीं है उसे किसी राजा को न मारना चाहिए । बौधायनधर्मसूत्र (१।१०।१०) ने विषाक्त बाणों (कणियों) से मारना निषिद्ध माना है, यही बात शान्ति० (६५।११) में भी पायी जाती है । शान्ति० (६५।१३-१४) ने तो यहाँ तक व्यवस्था दे डाली है कि यदि शत्रु-पक्ष का सैनिक घायलहो गया हो तो उसकी दवा-दारू की जानी चाहिए
और अच्छा हो जाने पर ही उसे जाने देना चाहिए । शान्तिपर्व में यह भी आया है कि सैनिक को चाहिए कि वह बच्चे, बुढ़े या पीछे से किसी को न मारे और न उसे मारे जिसने मुह में तिनका ले लिया है (हार स्वीकार कर प्राणों की भिक्षा मांग रहा है)। ये नियम बड़े उदात्त हैं, किन्तु कदाचित् ही व्यवहार में पूर्णरूपेण माने जाते रहे हों। आजकल तो निहत्थी एवं अनजान में पड़ी जनता पर भी पर छोड़ दिये जाते हैं और आये दिन उदजन बम फेंकने की
७. न दोषो हिंसायामाहवे। अन्यत्र व्यश्वसारथ्यायुधकृताञ्जलिप्रकोण केशपराङमुखोपविष्टस्थलवृक्षाधिरूढदूतगोब्राह्मणवादिभ्यः । गौतम १०।१७-१८; न पानीयं पिबन्तं न भुञ्जानं नोपानही मुञ्चन्तं नावर्माण सवर्मा न स्त्रियं न करेणुं न वाजिनं न सारथिनं न सूतं न दूतं न ब्राह्मणं न राजानमराजा हन्यात् । शंख (याज्ञ० ११३२६ को टीका में मिताक्षरा द्वारा उद्धत); बद्धाञ्जलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम् । न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रु परन्तप । आर्तो वा यदि वा दृप्तः परेषां शरणं गतः । अरिः प्राणान् परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना ॥"एवं दोषो महानत्र प्रपन्नानामरक्षणे । अस्वयं चायशस्यं च बलवीर्यविनाशनम् ॥ रामायण (६।१८।२७-२८, ३१);न वधः पूज्यते लोके सुप्तानामिह धर्मतः । सौप्तिकपर्व (११); वृद्धबालौ न हन्तव्यो न च स्त्री नैव पृष्ठतः । तृणपूर्णमुखश्चैव तवास्मीति च यो वदेत् ॥ शान्ति० (६८१४८-४६)।
८. भग्नशस्त्रो विपन्नश्च कृत्तज्यो हतवाहनः । चिकित्स्यः स्यात् स्वविषये प्राप्यो वा स्वगृहे भवेत् ।। निर्वणश्च स मोक्तव्य एष धर्मः सनातनः । शान्ति० (६५।१३-१४)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org