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धर्मशास्त्र का इतिहास होने के लिए एक को दूसरे के विरोध में खड़ा कर देना चाहिए । वास्तुशास्त्र द्वारा निर्धारित सर्वश्रेष्ठ भूमिखण्ड पर
निश्चित होना चाहिए जो नायक (सेनाध्यक्ष), बढ़ई एवं ज्योतिषी द्वारा नपा-तुला भी होना चाहिए, शिबिरस्थल वृत्ताकार, वर्गाकार या चतुर्भुजाकार तथा चार फाटकों वाला होना चाहिए, जिसमें ६ मार्ग हों और ६ भाग हों। झगड़ा, मद्य-सेवन, समाज (आनन्दोत्सव आदि), जुआ आदि का निषेध होना चाहिए और प्रवेशपत्र पर ही लोग उसमें आने-जाने पायें (१०।१)। वनपर्व (१५।१४,१६) ने भी प्रवेशपत्न का उल्लेख किया है। जब द्वारका को शाल्व ने घेर लिया था तो नर्तकों एवं संगीतज्ञों का आना निषिद्ध था। उद्योग० (१५११५८, १६५।१०-१६)से पता चलता है कि हाटों, वेश्याओं, सवारियों, बैलों, यन्त्रों, आयुधों, डाक्टरों (वैद्यों) आदि से युवत दुर्योधन की सेना का निवास (सेनानिवेश या स्कन्धावार) राजधानी की भाँति दिखाई पड़ता था और विस्तार में पाँच योजन था। कौटिल्य (१०३) में आया है कि चीर-फाड़ करने के यन्त्रों एवं सहायक यन्त्रों के साथ दवाओं, अच्छा करने वाले तैलों, अपने हाथों में घाव बाँधने के वस्त्र-खण्डों को लिये हुए दैद्यों-उपवैद्यों के साथ ऐसी कुशल दाइयाँ होनी चाहिए जो सैनिकों को खाना-पीना दें और उन्हें उत्साहित करती रहें। यही बात भीष्मपर्व (१२०१५५) में भी कही गयी है। श्रमिकों (विष्टि)का कार्य था शिबिरों, मार्गों, पुलों, कूपों, नदी के घाटों की जाँच करना; यन्त्रों, आयध, कवच, बरतन, चारा आदि ले चलना; घायल व्यक्तियों को उनके आयधों, कवचों के साथ समरभूमि से उठाना (१०॥४) । प्रत्येक सेनाध्यक्ष के पास विशिष्ट पताका रहा करती थी। भीष्म की पताका में था एक सुनहला ताल वृक्ष (भीष्म० ६।१७ एवं १८, तालेन महता भीष्मः पञ्चतारेण केतुना) । कौटिल्य (१०।६)ने बहुत-से व्यूहों का उल्लेख किया है, यथा--दण्ड, भोग, मण्डल, अशनिहत; उन्होंने कुछ उपविभागों के नाम भी दिये हैं, यथा--गोमूत्रिका, मकर आदि । काम० (१८१४८-४६, १६४०), मनु (७.१८७-१६१), नीतिप्रकाश (अध्याय ६) एवं महाभारत में बहुत-से व्यहों का वर्णन मिलता है । वनपर्व (२८५।६-७) ने उशना के नियमों पर आधारित रावण की सेना तथा बृहस्पति के नियमों पर आधारित राम की सेना का उल्लेख किया है। आश्रमवासिकपर्व (७।१५) में शकट, पद्म एवं बज नामक व्यूहों की चर्चा है। कौटिल्य (१०।६) ने व्यहों के निर्माण के सिलसिले में
औशनस एवं बार्हस्पत्य नियमों की ओर संकेत किया है । द्रोण (७५।२७, ८७।२२-२४), कर्णपर्व (११।१४ एवं २८)ने मकर, शकट आदि व्यहों का वर्णन किया है। इस विषय में और देखिए मानसोल्लास (२।२०, श्लोक ११७०११८१, पृ० १३४-१३५), अग्नि ० (२४२१७-८ एवं ४२-४३)। कौटिल्य में विजय के लिए कपटाचरण आदि की ओर संकेत है, किन्तु महाभारत ने इस विषय में बहुत उच्च आदर्श रखा है। भीष्मपर्व (२१।१०) में आया है विजेता लोग अपनी सेनाओं एवं शक्ति से विजय नहीं प्राप्त करते बल्कि अपनी सचाई, अत्याचाराभाव, धर्मानुचरण एवं शक्तिपूर्ण क्रियाओं से प्राप्त करते हैं। शान्तिपर्व (६५।१७-१८) में आया है कि कपटपूर्ण क्रियाओं से विजय प्राप्त करने की अपेक्षा समरांगण में लड़ते हुए मर जाना श्रेयस्कर है।
भीष्मपर्व (१।२७-३२) में कौरवों एवं पांडवों द्वारा स्वीकृत युद्ध-सम्बन्धी कुछ नियमों का उल्लेख है, यथा अपने समान लोगों से ही युद्ध करना चाहिए (पैदल सैनिक से पैदल सैनिक, घुड़सवार से घुड़सवार आदि)। दूसरे से लड़ते हुए योद्धा को नहीं मारना चाहिए, जो पीठ दिखा दे, या जो बिना कवच का हो उसे न मारा जाय । आपस्तम्बधर्मसूत्र
६. न तथा बलवीर्याम्यां जयन्ति विजिगीषवः। यथासत्यानृशंस्याभ्यां धर्मेणैवोद्यमेन च ॥भीष्म० (२१।१०); धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा। नाधर्मश्चरितो राजन् सद्यः फलति गौरिव । मूलानि च प्रशाखाश्च दहन समधिगच्छति ॥ शान्ति० (६५।१७-१८)।
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