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________________ सेना-प्रबन्ध ६८१ बिल्ला (संकेत) था जिसे वे अपने वस्त्रों पर लगाये रहते थे, जिससे उनके पद एवं स्थान का पता उचित रूप से चल सके । अयोध्याकाण्ड (१००।३२ == सभापर्व ५।४८) में आया है-"मैं समझता हूँ पात्रता के अनुसार प्रत्येक सैनिक को तुम उचित समय से भोजन-सामग्री एवं वेतन देते हो और देरी नहीं करते हो।" नारदस्मृति (सम्भूय० २२) एवं बृहस्पतिस्मृति के मत से भाड़े पर काम करने वालों में सैनिक सर्वश्रेष्ठ होता है। मानसोल्लास (२।६।५६६-५६६) का कहना है कि राजा को वंशानुगत सेना के प्रमुखों को रत्नों, आभूषणों, बहुमूल्य परिधानों, मधुर शब्दों एवं भोजन-सम्बन्धी विशिष्ट उपकरणों से सम्मानित करना चाहिए, और उन्हें एक ग्राम या दो ग्राम या अधिक ग्राम या सोना आदि देने चाहिए। राजा को चाहिए कि वह भाड़े पर काम करने वाले सैनिकों को प्रति दिन, मासिक, त्रैमासिक, या जैसा भी सम्भव हो, वेतन समय से दे। मेगस्थनीज (फंगमेण्ट ३४, १०८८) ने भारतीय सेना के प्रबन्ध का उल्लेख किया है-- "एक तीसरी प्रशासक संस्था सैनिक कार्यों की देखभाल करती थी,जिसके ६ भाग थे और प्रत्येक भाग में ५ सदस्य थे। एक भाग नौ-सेना से सम्बन्धित था, दूसरा बैलगाडियों, भोजन-सामग्री तथा अन्य सामानों को ढोने के लिए, तीसरा पैदल सेना, चौथा घड़सवारों, पाँचवाँ रथों एवं छठा हाथियों से सम्बन्धित था । मध्यकाल में रथों को मान्यता नहीं मिली और हर्षचरित में भी जहाँ सेनाओं का विशद वर्णन मिलता है, रथों की चर्चा नहीं हुई है। महाभारत में भारत के उत्तरपश्चिम देशों के घोड़ों को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। कम्बोज एवं गन्धार के घोड़ों का उल्लेख सभापर्व (५३१५) में हुआ है, बालीक के घोड़ों का उद्योग० (८६६) में, काम्बोज घोड़ों का द्रोण० (१२०२५) एवं सौप्तिक०(१ हुआ है । हर्षचरित (२) ने वनायु, आरट्ट, कम्बोज, सिन्धु देश एवं पारसीक से आये हुए घोड़ों को सर्वश्रेष्ठ कहा है। शुक्र ० (४।७।३७६-३६०) ने सेना के विषय में कुछ व्यावहारिक नियम दिये हैं । सैनिकों को ग्राम या बस्ती से दूर (किन्तु बहुत दूर नहीं) रखना चाहिए, ग्रामवासियों एवं सैनिकों में धन के लेन-देन का व्यापार नहीं होने देना चाहिए। सैनिकों के लिए राजा को पृथक् दुकानें खोलने का प्रबन्ध करना चाहिए, एक स्थान पर सैनिकों का आवास एक वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए, विना राजा की आज्ञा के सैनिक ग्रामों के भीतर न जाने पायें, जो कुछ सैनिकों को दिया जाय उसकी रसीद रख लेनी चाहिए और उनके वेतन का लेखा-जोखा रखना चाहिए। इनमें से कुछ नियम अति प्राचीन हैं। उद्योगपर्व (३७।३०) में आया है कि राजाओं के नौकरों एवं सैनिकों से व्यवहार नहीं करना चाहिए। राजा की सेना के प्रबन्ध आदि के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र (६१-७ एवं१०११-६) में विशद वर्णन मिलता है, यथा-सेना-प्रबन्ध कैसा हो, आक्रमण के लिए प्रस्थान कब और कहाँ होना चाहिए,बाह्य और अन्तः आपत्तियां एवं विपत्तियाँ तथा उन्हें दूर करने के क्या उपाय हैं, देशद्रोहियों एवं शत्नुओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, अग्नि, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष आदि विपत्तियों में क्या धार्मिक परिहार (देव-पूजन,ब्राह्मणों की पद-पूजा एवं अथर्ववेद के अनु. सार इन्द्रजालिक कियाएँ) होने चाहिए; सेनाओं का स्कन्धावार (शिबिर आदि की व्यवस्था) कैसा हो; कपटपूर्ण एवं व्यूहरचनात्मक समर कैसे किया जाय, कौन-से युद्धस्थल अच्छे हैं। उसी प्रकार अर्थशास्त्र में सेना के निवासस्थान, बेगार, व्यूह-रचना आदि पर विशद वर्णन मिलता है। स्थानाभाव के कारण हम इन सभी बातों पर प्रकाश नहीं डाल सकते । दो-एक बातें यहाँ दे दी जाती हैं। राजा को शत्रु पर मार्गशीर्ष में (जब कि वर्षाकाल की कृषि खड़ी हो) या चैत्र या जब शत्र किसी आपत्ति से ग्रस्त हो तब आक्रमण करना चाहिए। यही बात शान्ति० (१००1१०-११) में भी पायी जाती है। जब कोई मन्त्री, पुरोहित, सेनापति या युवराज क्रुद्ध होता है या राजा से अप्रसन्न होता है, तब अन्त:विपत्तियों का जागरण होता है । ऐसी स्थिति में राजा को अपना दोष मान लेना चाहिए या किसी शत्रु-आक्रमण की ओर संकेत करके सब कुछ शान्त कर देना चाहिए। यदि युवराज तंग करे तो उसे या तो बन्दी बना लेना चाहिए या मार डालना चाहिए (जब कोई अन्य योग्य पुत्र जीवित हो तभी ऐसा करना चाहिए। प्रान्तीय शासक या अन्तपाल या आटविक या किसी विदेशी राजा द्वारा उत्पन्न विपत्ति को बाह्यविपत्ति कहा जाता है। राजा को इस विपत्ति से दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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