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अध्याय ८
बल (सेना) (६)
कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं अन्य ग्रन्थों में बल को दण्ड भी कहा गया है। किन्तु सुमन्तु के मत से दण्ड का तात्पर्य है “शारीर दण्ड या अर्थ-दण्ड" और वे चतुरंगिणी सेना की गणना कोश के अन्तर्गत मानते हैं ।' ऋग्वेद में सेना, अस्त्रशस्त्रों, युद्धों आदि का वर्णन कई बार हुआ है । 'सेनानी' शब्द ऋग्वेद (१०।८४१२) में आया है जहाँ युद्धाक्रोश को सेनानी होने के लिए पुकारा गया है। ऋग्वेद (६७५) में धनुषों, बाणों, कवच (शिरस्त्राण आदि), प्रत्यंचाओं, तूणीर, सारथि, अस्त्रों, रथों आदि की चर्चा हुई है । कामन्दक (१३।३४-३७) का कथन है कि परिपूर्ण कोश के रहने पर राजा अपनी क्षीण मेना बढ़ाता है, अपनी प्रजा की रक्षा करता है और उस पर उसके शत्रुगण भी आश्रित रहते हैं। बलशाली सेना के रहने पर मित्रों एवं शतुओं की सम्पत्ति तथा स्वयं राजा के राज्य की सीमाएं बढ़ती हैं, उद्देश्यों की शीघ्र एवं मनचाही पूर्ति होती है, प्राप्त की हुई वस्तुओं की सुरक्षा होती है, शन्नु की सेनाओं का नाश होता है तथा अपनी सेनाओं की टुकड़ियां एकन्न की जा सकती हैं। अधिकांश आचार्यों के मत से सेनाएँ छ: प्रकार की होती हैं, यथा--मौल (वंशपरम्परानुगत), भृत या भृतक या भृत्य (वेतन पर रखे गये सैनिकों का दल), श्रेणी (व्यापारियों या अन्य जन-समुदायों की सेना), मित्र (मित्रों या सामन्तों की सेना), अमित्र (ऐसी सेना जो कभी शत्रुपक्ष की थी), अटवी या आटविक (जंगली जातियों की सेना)। इस विषय में देखिए कौटिल्य (६२, प्रथम वाक्य), कामन्दक (१८१४), अग्नि० (२४२।१-२), मानसोल्लास (२॥६, श्लोक ५५६, पृ० ७६) । इनमें प्रथम तीन ग्रन्थों के अनुसार उपर्युक्त छः प्रकारों में पूर्व वणित प्रकार आगे वाले प्रकारों से उत्तम हैं। ३ मौल दल आज की स्थायी सेना का द्योतक है। कौटिल्य ने इस सेना की प्रभूत महत्ता गायी है, क्योंकि यह राजा द्वारा प्रतिपालित होती है और इसके सैनिक सदा व्यायाम एवं अभ्यास करते रहते हैं। मौल सेना में ऐसे लोग रहते थे जिनके पूर्वजों को उनकी सैनिक सेवाओं के फलस्वरूप करमुक्त भूमि-खंड प्राप्त रहते थे। सभापर्व (५।६३) ने सेना के चार प्रकार (श्रेणी एवं अमित्र को छोड़ दिया है) एवं युद्धकाण्ड (१७।२४) ने पांच प्रकार (श्रेणी को छोड़ दिया है) बताये हैं । आश्रमवासिकपर्व (७७-८) के अनुसार सेना के पाँच प्रकार हैं (अमित्र को छोड़ दिया गया है) और मौल तथा मित्र नामक सेनाओं को अन्य प्रकारों से श्रेष्ठ कहा गया है तथा भृतक एवं श्रेणी सैन्य दलों को एक-दूसरे के समान ही कहा गया है। सेना के इन प्रकारों की चर्चा वलभी के राजा ध्रुवसेन प्रथम के शिलालेख (वलभी+ गुप्त संवत् २०६) में भी हुई है (एपि० इण्डि०, जिल्द ११, पृ० १०६)।
१. दण्डः चतुरंगसंन्यं न भवति । अपराधानुसारेण शारीरोऽर्थडदण्डः परिकल्पनीयः । अयमभिसन्धिः-- सुमन्तुमते चतुरंगसैन्यस्य कोश एवान्तर्भाव इति । (स० वि०, पृ० ४६) ।
२. अग्निरिव मन्यो विषितः सहस्व सेनानीनंः सहुरे हूत एघि ॥ ऋ० (१०१८४।२) ।
३. मौलभृतकश्रेणीमित्रामित्राटवीबलानां समुदानकालाः । पूर्व पूर्व चैषां श्रेयः संनाहयितुम् । कौटिल्य ( २) ।
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