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धर्मशास्त्र का इतिहास
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गजेटियर, जिल्द १, भाग १, पृ० १७२ एवं प्रबन्धचिन्तामणि, पृ० ८४, टानी ) । कोश की वृद्धि के लिए मानसोल्लास ने राजा को रासायनिक उपायों की शरण में भी जाने को कहा है । २४
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अब यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है; राजा को करातिरेक एवं अत्यधिक अत्याचारों से रोकने के क्या साधन थे ? कौटिल्य ( ७१५, पृ० २७६-२७७) ने प्रजाजन की दरिद्रता, लोभ एवं असन्तोष के कारणों पर विशद रूप से प्रकाश डाला है। उसने लिखा है-- २५“जो देना चाहिए वह न दिया जाय, जिसे न लेना चाहिए वह लिया जाय, अपराधी को दण्डित न किया जाय अथवा उसे बुरी तरह दण्डित किया जाय, चोरों से प्रजाजनों की रक्षा न की जाय और उनकी सारी सम्पत्ति छीन ली जाय । " आदि ऐसे कारण हैं जिनमे प्रजाजनों में दरिद्रता, लोभ, असन्तोष, विराग आदि उत्पन्न होते हैं । कौटिल्य ने लिखा है कि जब प्रजाजन दरिद्र या क्षीण हो जाते हैं तो वे लोभी हो जाते हैं, लोभी हो जाने पर उनमें असन्तोष उत्पन्न होता है, तभी वे शत्रुओं की ओर चले जाते हैं और अपने राजा का नाश कर देते हैं। एक अन्य स्थान पर कौटिल्य ( १३।१ ) ने लिखा है -- “ विजयी राजा को ऐसे गुप्तचर नियुक्त करने चाहिए जो शत्रु, अकाल ( दुर्भिक्ष ), चोरों एवं आटविकों अर्थात् जंगली जातियों के विप्लवों से व्याकुल प्रजाजनों को अपने राजा से यह कहने को उकसा सकें कि हम लोग राजा से सहायता की माँग ( कर- मुक्त करने या बीज आदि दिलाने की व्यवस्था करने के लिए) करेंगे, यदि वह हमारी मांगें ठुकरा देगा तो हम अन्य देश को चले जायेंगे ।" शान्तिपर्व ( ८७/३६) में आया है कि यदि वैश्य लोग ( गोमिनः ) जो कर का अधिकांश देते हैं, उपेक्षित हो जायँ तो वे या तो देश से चले जायेंगे या वनों में रहने लगेंगे। मनु ( ७।१११ - ११२ ) ने उन राजाओं को सावधान किया है जो मूर्खतावश अपने देश पर अत्याचार ढाते हैं जिसके फलस्वरूप उनका, उनके सम्बन्धियों एवं राज्य का नाश हो सकता है । याज्ञ० •(21३४०-३४१) ने और कड़ी चेतावनी दी है; जो राजा अपना कोश अन्यायपूर्ण साधनों से बढ़ाता है वह शीघ्र ही अपनी सम्पत्ति खो बैठता है और अपने सम्बन्धियों के साथ नाश को प्राप्त हो जाता है; "प्रजाजन के क्रोध से उत्पन्न अग्नि तब तक नहीं बुझती जब तक कि उसके वंश, सम्पत्ति एवं उसके प्राणों को नहीं हर लेती ।" कात्यायन (श्लोक १६) ने आध्यात्मिक परिणामों की ओर संकेत किया है--"जो राजा अन्यायपूर्वक प्रजाजन से कर, दण्ड, सस्यभाग, शुल्क आदि लेता है वह पाप कर्म करता है ।" ३६ शुक्रनीतिसार ( २।३१६- ३२१ एवं ३७० ) ने दैनन्दिन, मासिक, वार्षिक आय व्यय ब्यौरा रखने की बात चलायी है, जिसमें आय-ब्यौरा बायों ओर तथा व्यय-ब्यौरा दायीं ओर होना चाहिए। ३७ नीतिवाक्यामृत ने आय-व्यय की गड़बड़ी होने पर दक्ष आय-व्यय-निरीक्षक की नियुक्ति की बात कही है ॥२८
२४. धातुवादप्रयोगैश्च विविधैर्वर्धयेद्धनम् । ताभ्रेण साधयेत् स्वर्ण रौप्यं वंगेन साधयेत् ॥ मानसोल्लास ( २ ।४, श्लोक ३२७, पृ० ६३) ।
२५. अप्रदानैश्च देयानामदेयानां च साधनैः । अदण्डनैश्च दण्ड्यानां दण्ड्यानां चण्डदण्डनैः ॥ अरक्षणश्च चोरेभ्यः स्वानां च परिमोषण: ।... राज्ञः प्रमादालस्याभ्यां योगक्षेम विधावपि ॥ प्रकृती नांक्षयो लोभो वैराग्यं चोपजायते । क्षीणाः प्रकृतयो लोभ लुब्धा यान्ति विरागताम् । विरक्ता यान्त्यमित्रं वा भर्तारं घ्नन्ति वा स्वयम् ॥ कौटिल्य ( ७/५) । २६. अन्यायेन हि यो राष्ट्रात्करं दण्डं च पार्थिवः । सस्यभागं च शुल्कं चाप्याददीत स पापभाक् ॥ कात्यायन, राजनीति प्रकाश, पृ० २७६ में उद्धृत ) ।
२७. वत्सरे वत्सरे वापि मासि मासि दिने दिने । हिरण्यपशुधान्यादि स्वाधीनं त्वायसंज्ञकम् ॥ पराधीनं कृतं यत्तु व्ययसंज्ञ धनं च तत् । आयमादौ लिखेत्सम्यग् व्ययं पश्चात्तथागतम् । वामे वायं व्ययं दक्षे पत्रमागे व लेखयेत् ॥ शुक्रनीतिसार (२।३२१, ३७० ) ।
२८. आयव्यय विप्रतिपत्तौ कुशल कर णकार्य पुरुषेभ्यस्तद्विनिश्चयः । नीतिवाक्यामृत, पृ०१८६ ( अमात्य सम् व् देश ) ।
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