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________________ आय के अन्य साधन, एकाधिकार आदि ६७५ द्वारा बनाये गये नमक पर वह अपना भाग लेता था; वह बाहर से आये हुए नमक का भाग कर-रूप में लेता था। कौटिल्य ने खानों से प्राप्त कर के दस प्रकार बताये हैं। मानसोल्लास (२१३, श्लोक ३३२ एवं ३६१) ने राजा से हीरे, सोने एवं चाँदी की खानों की सुरक्षा के लिए कहा है और घोषित किया है कि विधाता ने उसे सम्पूर्ण सम्पत्ति का शासक बनाया है, विशेषतः उन वस्तुओं का जो भूगर्भ में हैं। रुद्रदामा (१५० ई.) ने सगर्व कहा है कि उसने अपने कोश को शास्त्र के अनुसार लगाये गये बलि, शुल्क एवं भाग से भरा है और उसे सोने, चांदी, हीरों, मणियों तथा अन्य प्रकार के रत्नों से भरपूर किया है (एपि० इण्डि०, जिल्द ८, पृ० ३६) । कौटिल्य (४।१) ने कहा है कि जो खानों की धूल बुहारता है वह भाग और राजा भाग तथा सभी रत्न पाता है। कुछ बातों में राजा को एकाधिकार प्राप्त थे। केवल वही हाथियों को पकड़ सकता था (कौटिल्य २।३१-३२, मानसोल्लास २।३, १० ४४-५८) । मानसोल्लास में हाथियों के पकड़ने के कई उपाय बताये गये हैं। मेधातिथि (मनु ८६४००) ने हाथियों के अतिरिक्त अन्य वस्तुएं, यथा--कुंकुम, रेशम, ऊन, मोती, रत्न आदि राजा के एकाधिकार के अन्तर्गत गिनाये हैं । २२ मेगस्थनीज (फंगमेण्ट ३६, पृ०६०) ने लिखा है कि राजा को छोड़कर अन्य व्यक्ति हाथी या घोड़ा नहीं रख सकता था, क्योंकि ये पशु राजा की विशिष्ट सम्पत्ति के अन्तर्गत गिने जाते हैं। राजा अपने अन्तपालों (सीमा-प्रान्तों या सीमा के रक्षक या अभिभावक) के द्वारा मार्ग-कर लेता था, यथा-- व्यापार के समान से भरी एक गाड़ी पर १० पण, पशु पर १ पण, छोटे-छोटे चौपायों पर पण तथा मनुष्य के कंधे पर ढोये गये सामान पर एक माष लगता था (कौटिल्य २।२१, पृ० १११) । शुक्र (४१२।१२६) ने मार्ग के जीर्णोद्धार के लिए पृथक् कर की व्यवस्था दी है। आय के अन्य साधन भी थे, यथा--बटखरों पर मुहर लगाने, जुआ खिलाने वालों, नटों, संगीतज्ञों, वेश्याओं, जंगलों, चरागाहों आदि से आय अथवा कर की प्राप्ति होती थी। बहत्पराशर (१०, पृ० २८२) ने कोश खाली हो जाने पर मन्दिरों पर भी कर लगाने की बात उठायी है, किन्तु समय का परिवर्तन हो जाने पर लिया गया धन लोटा देने की व्यवस्था भी दी है। इसी प्रकार इसने आपत्काल में महाजनों (ब्याज पर धन देने वालों), कृपणों, निम्न जातियों, अधार्मिकों, वेश्याओं आदि का धन ले लेने की व्यवस्था दी है, क्योंकि मन्दिरों एवं अन्य लोगों की सम्पत्ति की रक्षा तथा उनकी विद्यमानता राजा पर ही निर्भर है।२३ राजतरंगिणी (७/१००८) का कथन है कि गया का श्राद्ध करने वाले कश्मीरयों पर एक प्रकार का कर लगता था। विक्रमादित्य पञ्चम के एक शिलालेख (गदग के पास, सन १०१२-१३ ई०) में ऐसा संकेत विवाहों, वैदिक यज्ञों आदि पर भी कर लगता था (एपि० इण्डि, जिल्द २०, प० ६४)। अनहिलवाड़ के राजा सिद्धराज (१०६४-११४३ ई०)ने सीमान्त नगर बाहुलोद में सोमनाथ-मन्दिर के यात्रियों पर जो कर लगता था और जिससे प्रतिवर्ष ७५ लाख की आय होती थी, अपनी माता के कहने पर उसे क्षमा कर दिया, अर्थात उसे लेना रोक दिया (बाम्बे २२. यानि भाण्डानि राजोपयोगितया, यथा हस्तिनः कश्मीरेषु कुंकुमप्रायेषु पट्टोर्णादीनि प्रतीच्येष्वश्वा दाक्षिणात्येषु मणिमुक्तादोनि । मेधा० (मनु ८।४०) । आज भी कश्मीर का कुंकुम प्रसिद्ध है। सरकपांसुधावकाः सारत्रिभागं लभेरन् । द्वौ राजा रत्न ध । अर्थशास्त्र (४।१)। २३. नृपस्य यदि जातानि देव व्याणि कोशवत् । आदाय रक्ष्य'चात्मानं ततस्तत्र च तत् क्षिपेत् ॥ वित्तं वार्डषिकाणां तु कदर्यस्यापि यत् भवेत् । पाण्डिगणिकावित्तं हरनातो न किल्विषी ।। देवब्राह्मणपाषण्डिगणका गणिकावयः। वणिग्वार्धषिकाः सर्वे स्वस्थे राजनि सुस्थिताः ।। बृहत्पराशर (१०, पृ० २८२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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