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धर्मशास्त्र का इतिहास शुल्क लगता है, ब्राह्मणों को भेट के सामानों पर शुल्क नहीं देना पड़ता है, इसी प्रकार अभिनेता को सम्पत्ति एवं कंध (बहेंगी) पर ढोये जाने वाले सामानों पर शुल्क नहीं लगता। इस विषय में और देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ३॥ गौतम (१०१६-१२), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।१०।२६।१०-१६), वसिष्ठ (१।४२-४६ एवं १६।२३-२४) एवं मनु (८।३६४) ने शिक्षित एवं विद्वान् ब्राह्मणों, सभी जातियों की नारियों, युवा होने से पूर्व के बच्चों, गुरुकुल में रहने वाले छात्रों, धर्मज्ञ साधुओं, शूद्रों (जो सवर्ण लोगों का पैर धोते हैं), अन्धों, बहरों, गूगों, रोगियों, लूलों, ७० वर्षीय या अधिक अवस्था वालों को निःशुल्क कहा है। व्यापारी श्रोत्रियों को नारद (६।१४) के अनुसार शुल्क देना चाहिए। २० याज्ञ० (२।४) की व्याख्या में मिताक्षरा का कथन है कि केवल विद्वान् ब्राह्मण ही करमुक्त हैं, न कि सभी ब्राह्मण । मनु (७।१३३) का कहना है कि भले ही राजा का सब कुछ नष्ट हो गया है, उसे श्रोत्रिय पर कर कभी नहीं लगाना चाहिए। किन्तु रामायण (३।६।१४) में विचित्र विरोधी बात आयी है--"मूल फल पर जीविका निर्वाह करने वाला मुनि जो धर्म करता है उसका भाग राजा का होता है।"११ राजा पर इसी प्रकार दूसरा भार भी था; यदि वह ठीक से नियन्त्रण नहीं करता था और प्रजाजन अपराध या पाप करते थे तो राजा को उन पापों का आधा स्वयं भोगना पड़ता था (याज्ञ० ११३३७) । इसी प्रकार मनु, विष्णुधर्मसूद्र (३।२८), विष्णुधर्मोत्तर (२०६१।२५) आदि का कहना है कि राजा को अपनी प्रजा के पापों का भाग स्वयं भोगना पड़ता है।
कौटिल्य (२।१५) ने करों एवं शुल्कों के प्रकारों का वर्णन किया है। बहुत-से शब्दों का अर्थ बताना कठिन कार्य है। प्राचीन काल में दान देते समय राजाओं ने दान लेने वालों को बहुत-से करों से मुक्त किया है, जैसा कि उनके दानपनों से व्यक्त होता है। ऐसे अपवादों को परिहार (छुट) कहा जाता है। यह शब्द कौटिल्य एवं हाथीगुम्फा के लेख (एपि० इण्डि०, जिल्द २०, ५०६) में आया है (बम्हनानं जाति परिहारं ददाति)। प्राचीन अभिलेखों में १८
कन्द वर्मा (एपि० इण्डि०, जिल्द १, पृ०६), विजयस्कन्द वर्मा (पि. इण्डि०, जिल्द १५, प० २५०) आदि । इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय २५
इस ग्रन्थ के 'व्यवहार एवं न्याय' वाले अध्याय में हम अर्थ-दण्ड के विषय में पढ़ेंगे। राजा की आय के बहुत से उपादान थे । कौटिल्य (२।१२) ने खानों के अध्यक्ष के कार्यों का वर्णन किया है। खानों से निकाली हुई प्रत्येक वस्तु राजा की मानी जाती है (विष्णुधर्ममूत्र ३५५) । मनु (८३६) एवं उसके टीकाकार मेधातिथि के अनुसार राजा खानों से खोदी गयी वस्तुओं के अर्धा श का या कुछ वस्तुओं के आदि भाग का अधिकारी है, क्योंकि वह भूमि का स्वामी है और सुरक्षा प्रदान करता है। परशरामप्रताप ने उद्धरण दिया है-"ब्रहमा ने व्यवस्था दी है। स्वामी है, विशेष रूप से वह पृथ्वी के भीतर के धन का स्वामी है।" कात्यायन (१६।१७) का कथन है कि "राजा भूमि का स्वामी घोषित है, किन्तु सम्पत्ति के सभी प्रकारों का नहीं; अत: उसे पृथ्वी की उपज का छठा भाग मिलना चाहिए । किन्तु मनुष्य पृथ्वी पर रहते हैं अतः उनका विशिष्ट स्वामित्व भी घोषित है।" इस विषय में हमने पहले पढ़ लिया है (देखिए इस ग्रन्थ के भाग २ का अध्याय २५)। राज्य की ओर मे नमक बनता था अतः अन्य लोगों
२०. सदा श्रोत्रियवानि शुल्कान्याहुः प्रजानता । गृहोपयोगि यच्चैषां न तु वाणिज्यकर्मणि ॥ नारद ६।१४; ब्राह्मणेभ्यः करादानं न कुर्यात् । विष्णुधर्मसूत्र (३।२६) । इसको टीका वैजयन्ती का कहना है-"परन्तु श्रोत्रियेभ्यः । नियमाणो......करमिति मानवात् ।"
२१. यत्करोति परं धर्म मुनिर्मूलफलाशनः । तत्र राजश्चतुर्भागः प्रजा धर्मेण रक्षतः ॥ रामायण, अरण्य ६॥१४॥
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