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शुल्क के विभिन्न रूप
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हों अथवा निरर्थक हों, नष्ट कर देनी चाहिए; उन वस्तुओं पर जिनकी उपादेयता बहत अधिक हो, वे बीज जो सरलता. पूर्वक प्राप्त नहीं होते, आदि आदि बिना किसी शुल्क के दूसरे देश से मंगा लिये जा सकते हैं।१८ कौटिल्य (२।२२) ने आगे कहा है कि आयात-निर्यात पर शुल्क लगता है; आयात पर सामान्यतः वस्तुओं का १ भाग कर-रूप में लिया जाता है और अन्य प्रकार की वस्तुओं पर विभिन्न प्रकार के शुल्क लिये जा सकते हैं, यथा
या भाग। कौटिल्य (२०२८) ने बन्दरगाहों के सामानों के शुल्कों की चर्चा की है जिसके विषय में हमने पहले ही पढ़ लिया है।
नाव से पार होने या सामान ले जाने पर निम्न प्रकार के नियम बने थे। ब्राह्मणों, साधुओं, बच्चों, बूढ़ों, रोगियों, राजदूतों, गर्भवती स्त्रियों पर नाव से पार हाते समय शुल्क नहीं लगता था। सामान तथा पशओं के बच्चों या छोटे पशुओं वाले मनुष्यों को एक माष, गाव, घोड़े वाले मनुष्यों को दो माष शुल्क देना पड़ता था। पशुओं की संख्या के अनुसार शुल्क बढ़ता जाता था। मानसोल्लास (२१४, श्लोक ३७४-३७६, पृ० ६२)ने व्यवस्था दी है कि राजा को वेलापुरों (बन्दरगाहों) की सुरक्षा करनी चाहिए, और जब अपने देश के नाविक दूर देश से सामान लेकर वेलापुर पर आयें तो उनसे सामानों का भाग शुल्क के रूप में लेना चाहिए और यदि उलटी हवाओं के कारण विदेशी नावें अपने वेलापरों में चली आयें तो उनका सारा सामान जब्त कर लेना चाहिए या थोडा-बहत छोड़कर सर्वस्व हरण कर लेना चाहिए । इस विषय में एक मनोरंजक शिलालेख का भी हवाला द्रष्टव्य है (एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द १२, पृ० १६५) । १६ काकतीय राज गणपतिदेव (११४४-४५ ई० सन्) के मोटुपल्लि-स्तम्भ वाले अभिलेख में एक अभय-शासन (सुरक्षा-सम्बन्धी राजानुशासन या सिक्योरिटी के चार्टर) का उल्लेख है । यह अनुशासन उन नाविकों के विषय में है, जो दूसरे दूसरे देशों के नगरों, द्वीपों एवं महाद्वीपों तक अपने पोत चलाया करते थे, यथा-"पुराने राजा लोग, उन पोतों के सामानों, यथा सोना, हाथी, घोड़े आदि को छीन लेते थे, जो एक से दूसरे देश जाते समय दुर्वातों (विरोधी हवाओं) के कारण ऐसे स्थान में आ लगते थे, जो उनका गन्तव्य न हो। किन्तु यह जानते हुए कि जीवन से धन अधिक प्यारा है, हम लोगों ने दयापूर्वक यह निश्चय किया है कि हम उन्हें सब कुछ ले जाने देंगे, केवल उनसे शुल्क मात्र लेंगे (क्योंकि) वे समुद्र पार करने का साहस करते हैं। ऐसा करके हम गौरव एवं सचाई के अधिकारी होंगे। शुल्क इस प्रकार लिया जाता है......।" समुद्र से आये हए सामानों पर बौधायनधर्मसूत्र (१।१०।१५-१६) के अनुसार भाग शुल्क लगना चाहिए। देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका (जिल्द ३, प० २६२)। शुक्रनीतिसार (४।२।१०६-१११) ने उचित शुल्क-निर्धारण किया है। एक देश में एक वस्तु पर एक ही बार शुल्क लगेगा, राजा क्रय करने वाले या विक्रय करने वाले से १.३० या भाग ले सकता है । यदि बिना लाभ उठाये या घाटे पर सामान बेचा जाय तो उस पर शुल्क नहीं लगता था, राजा को शुल्क लगाने से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि बेचने वाला क्या बेचने जा रहा है और कितना लाभ प्राप्त हो रहा है । नारद (सम्भूयसमुत्थान, श्लोक १४-१५) का कहना है कि घर के कामों के लिए सामानों पर श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को शुल्क नहीं देना पड़ता, किन्तु उसके व्यापार के सामानों पर
१८. राष्ट्रपीडाकर भाण्डमुच्छिन्द्यादफलं च यत् । महोपकारमुच्छुल्कं कुर्याद बीजं तु दुर्लभम् ।। कौटिल्य (२।२१)।
१६. "पूर्वराजानः पोतपात्रेष्वन्यदेशाद् देशान्तरप्रवृत्तेषु दुर्वातेन समापतितेषु भग्नेष्वतीर्थसंगतेषु च संभृतानि करितुरगरत्नादीनि वस्तूनि सकलानि बलादपहरन्ति । वयमपि प्राणेभ्योपि गरीयो धनमिति समुद्रयानकृतमहासाहसेभ्यस्तेभ्यः क्लृप्तशुल्कावृते कृपया कोत्यै धर्माय च सर्ब वितराम इति । तत्शुल्कपरिमाणम्...।" इसके उपरान्त शुल्कों के विषय में तेलुगु भाषा में वर्णन है । देखिए एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द १२, पृ० १६५ ।
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