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धर्मशास्त्र का इतिहास कार्यों के वर्णन (गत पृ० ६४६) में संकेत कर दिया गया है । शुक्र० (४।२।१२१-१२२) ने एक सुन्दर नियम दिया है-“यदि कोई कृषक तालाब, कूप, जलाशय बनाता है या वर्षों से पड़े हुए (अकृष्ट अर्थात् न जोते गये) खेत को जोतता है तो उससे तब तक कर नहीं लिया जाना चाहिए, जब तक कि वह अपने व्यय किये हुए धन का दुगुना नहीं प्राप्त कर लेता।' कौटिल्य (२११) ने लिखा है कि राजा को चाहिए कि वह कृषकों को बीज, पशु एवं धन अग्रिम दे दे, जिसे कृषक कई सरल भागों में लौटा सकते हैं। इस प्रकार की कृपा को अनुग्रह कहा जाता है। राजा को इस प्रकार अनुग्रह एवं परिहार (छूट) करना चाहिए कि कोश बढ़े, न कि खाली हो जाय ।।६ यह हमने बहुत पहले देख लिया है कि साधारणतः राजा को उपज का भाग मिलता था, किन्तु आक्रमण या अन्य प्रकार की आपत्तियों की स्थिति में वह भाग तक कर प्राप्त कर सकता था । मेगस्थनीज (फंगमेण्ट १, पृ० ४२) का कथन है कि किसी को भूमि-स्वामित्व का अधिकार नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति को भूमि-कर के अतिरिक्त उपज का भाग देना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में कर अधिक देना पड़ता था, क्योंकि उन दिनों यूनानी आदि आक्रामकों को मार भगाने तथा विशाल सेना के लिए अधिक धन की आवश्यकता थी। मनु (७।१३०), गौतम (१०।२५), विष्णुधर्मसूत्र (३।२४), मानसोल्लास (२।३।१६३, पृ० ४४) आदि के मत से राजा को चरवाहों द्वारा पालित पशुओं तथा महाजनी पर - भाग लेने का अधिकार था। अन्तिम बात से प्रकट होता है कि मानो प्राचीन काल में आयकर (इनकम टैक्स) लेने की प्रथा भी हलके ढंग से विद्यमान थी। शुक्र० (४।२।१२८) ने महाजनों द्वारा प्राप्त ब्याज पर
भाग लेने की व्यवस्था दी है।१७ विष्णु ने इस विषय में वस्त्र-व्यापार की भी चर्चा की है। मनु (७।१३१-१३२), गौतम (१०।२७), विष्णुधर्मसूत्र (३।२५), विष्णुधर्मोत्तर (२०६१।६-६३) एवं मानसोल्लास के अनुसार राजा को पेड़ों, मांस, मधु, घृत, चन्दन, ओषधियों के पौधों (यथा गुडूची), रसों (नमक आदि), पुष्पों, जड़ों (यथा हल्दी आदि), फलों, पत्तियों (यथा ताम्बूल आदि), शाकों (तरकारियों), घासों, खालों, बाँस की बनी वस्तुओं, मिट्टी के बरतनों, प्रस्तर की वस्तुओं पर भाग मिलता था। विष्णु ने इस सूची में मृगचर्म भी जोड़ दिया है।
__ शुल्क के दो प्रकार हैं-(१) वह जो स्थलमार्ग द्वारा लाये जाने वाले सामानों पर लगता है और (२) वह जो जलमार्ग द्वारा लाये जाने वाले सामानों पर लगता है ( मिताक्षरा, याज्ञ० २।२६३) । गौतम ( १०१२६ ) एवं विष्णुधर्म सूत्र (३।२६) के अनुसार देश में क्रीत एवं विक्रीत सामानों पर शुल्क ' भाग था, जिसे हरदत्त एवं नन्द पण्डित ने बिक्री की हुई वस्तुओं के दाम पर ५ प्रतिशत माना है और राजनीतिप्रकाश (पृ. २६४) ने क्रीत धन एवं विक्रीत धन के अन्तर अर्थात् लाभ के ५ प्रतिशत के रूप में माना है। विष्णुधर्मसूत्र (३।२६-३०) का कहना है कि राजा अपने देश में बने हुए सामानों पर १० भाग तथा दूसरे देश से आये हुए सामानों पर१. भाग कर लेता है ! याज्ञ० (२।२६१) का कहना है कि सामानों का भाग कर के रूप में लिया जाता है। कौटिल्य (२।२१) ने शुल्काध्यक्ष के अध्याय में कुछ निमय दिये हैं जिनके विषय में कुछ मनोरंजक बातें ये हैं--विवाह सम्बन्धी सामानों, वधू द्वारा पिता के घर से ससुराल ले जाते हुए सामानों या भेट की वस्तुओं पर, यज्ञ के सामानों, प्रसूति के सामानों, देवों की पूजा की वस्तुओं, चौल, उपनयन, गोदान, व्रत के उपकरणों, यज्ञ में दीक्षित करने के सामानों तथा इसी प्रकार अन्य प्रकार के विशिष्ट उत्सवों या क्रिया-संस्कारों में उपस्थित वस्तुओं पर कर नहीं लगता। वे वस्तुएँ, जो देश के लिए नाशकारी
१६. धान्यपशुहिरण्यश्चनाननुगृह्णीयात्तान्यनुसुखेन दद्युः। अनुग्रहपरिहारौ चन्यः कोशवृद्धिकरौ दद्यात् । कौटिल्य (२।१, पृ० ४७)।
१७. वार्धषिकाच्च कौसीदाद् द्वात्रिंशांशं हरेन्नृपः । शुक्र० (४।२।१२८) ।
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