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________________ कर-ग्रहण-सम्बन्धी सिद्धान्त एवं स्रोत ६६६ न्दक (४१६२।४४), शुक्र० (४।२-३), गौतम (१०।२८-२६), मनु (७११२८, ८।३०६-३०८), नारद (प्रकीर्णक ४८) आदि ने कर लगाने के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला है । प्रजाजनों की रक्षा करने के लिए मानो कर राजा का वेतन है। राजा सूर्य के समान है जो समुद्र से जल सोखकर पुन: वर्षा करता है (रघुवंधा १।१८) । कर लेकर राजा राज्य की रक्षा करता है, आपत्तियों से बचाता है, धर्म एवं अर्थ नामक उद्देश्यों की पूर्ति करता है। ___कामन्दक (५७८-७६) ने विभागाध्यक्षों के कार्यों द्वारा कोश के भरण के लिए आठ प्रमुख स्रोतों (अष्टवर्गों) का उल्लेख किया है, यथा--कृषि, जल-स्थल के मार्ग, राजधानी, जलों के बाँध, हाथियों को पकड़ना, खानों में काम करना--सोना एकत्र करना, (धनिकों से) धन उगाहना, निर्जन स्थानों में नगरों एवं ग्रामों को बसाना । मानसोल्लास (१।४, श्लोक ५३६-५४०, पृ०७७)ने कहा कि है राजा को वार्षिक कर का तीन चौथाई भाग साधारणतः व्यय कर देना चाहिए और एक चौथाई बचा रखना चाहिए। शुक्र ० (१।३१५-३१७) के मत से राजा को अपनी वार्षिक आय का छठा भाग बचा रखना चाहिए, सम्पूर्ण का आधा भाग सेना पर, बीसवाँ भाग(पण्डितों, दरिद्रों एवं असहायों आदि को) दान के रूप में तथा मन्त्रियों, छोटे-मोट कर्मचारियों, अपने लिए तथा अन्य मदों में व्यय करना चाहिए । शुक्र ० (४।२। २६) का कथन है कि राजा को तीन वर्षों के लिए अन्न एकत्र रखना चाहिए । इस स्मृति ने तो एक यह भी असम्भव बात कह डाली है कि उसका कोश इतना परिपूर्ण होना चाहिए कि २० वर्षों तक बिना किसी प्रकार का कर उगाहे सेना का व्यय संभाला जा सके । मानसोल्लास (१।४।३६४, ३६७, पृ० ६४) का कहना है कि कोश सोना, चाँदी, रत्नों, आभूषणों, बहुमूल्य परिधानों, निष्कों (सिक्कों) आदि से परिपूर्ण रहना चाहिए । कौटिल्य (४३) के मत से दुर्भिक्ष में राजा धनिकों से उनका धन ले सकता है। कौटिल्य (५।२) ने यह भी कहा है कि जब कोश खाली हो और कोई विपत्ति सामने आ खड़ी हो, तो राजा कृषकों, व्यापारियों, मद्य-विक्रेताओं (कलवारों), वेश्याओं, सूअर बेचने वालों, अण्डा, पशु आदि रखने वालों से विशिष्ट याचना करने के उपरान्त धनिकों से यथासामर्थ्य सोना देने का अनुरोध कर सकता है और उन्हें दरबार में कोई ऊँचा पद या छत्र या पगड़ी या कोई उचित सम्मान देकर बदला चुका सकता है। कौटिल्य ने राजा को यह छुट दी है कि वह आपत्काल में देवनिन्दकों के संघों एवं मन्दिरों का धन छीन सकता है. अथवा किसी रात्रि में अचानक किसी देवमूर्ति या पूत वृक्ष का चैत्य (उच्च मण्डप) स्थापित करने के लिए या अलौकिक शक्तियों वाले किसी व्यक्ति के हेतु पवित्न स्थान की स्थापना के लिए या मेला या जन-समूह के आनन्दोत्सव के लिए आवश्यक धन एकत्र कर सकता है। कौटिल्य ने और भी बहुत-सी बातें कही हैं, जिन्हें स्थानाभाव से हम यहाँ नहीं दे रहे हैं। उपर्युक्त ७. बह्वादानोऽल्पनिःस्रावः ख्यातः पूजितदैवतः । ईप्सितद्रव्यसंपूर्णो हृद्य आप्तरधिष्ठितः ।। मुक्ताकनकरत्नाव्यः पितृपतामहोचितः । धर्माजितो व्ययसहः कोशः कोशज्ञसंमतः ।। धर्महेतोस्तथार्थाय भृत्यानां भरणाय च । आपदर्थ च संरक्ष्यः कोशः कोशवता सदा ॥ काम० ४।६२-६४, राजनीतिरत्नाकर (पृ० ३४) द्वारा उद्ध त । ____८. सारतो वा हिरण्यमाढ्यान्याचेत । यथोपकारं वा स्ववशा वा यदुपहरेयुः स्थानछत्रवेष्टनविभूषाश्चषां हिरण्येन प्रयच्छत । अर्थशास्त्र (४।२)। ६. पतञ्जलि (महाभाष्य, जिल्द २, पृ० ४२६, पाणिनि ५।३।६६) के अनुसार मौर्यो ने धन के लिए मूर्तियाँ स्थापित की थीं । राजतरंगिणी (५।१६६-१७७) ने कश्मीर के राजा शंकरवर्मा को ज्यादतियों (बलपूर्वक ग्रहण) का वर्णन किया है । उसने निगरानी करने के बहाने से ६४ मन्दिरों का धन लूट लिया । उसने गृह्य कृत्यों (यथा---उपनयन-संस्कार, विवाह आदि)पर भी कर लगाया था। ग्यारहवीं शताब्दी में कश्मीर के राजा हर्ष ने अधिकांश मन्दिरों को लूट लिया था (राजतरंगिणी ७१०६०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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