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धर्मशास्त्र का इतिहास उपायों के पीछे कौटिल्य का मन्तव्य इतना ही है कि आपत्काल में उपयुक्त सहायता प्राप्त हो सके। किन्तु कौटिल्य ने इस विषय में इतनी सावधानी प्रदर्शित की है कि उचित धार्मिक स्थानों की सम्पत्ति न छीनी जा सके, केवल अधार्मिक एवं राजद्रोही लोगों की सम्पत्ति के साथ ही ऐसा व्यवहार किया जाय (५।२; एवं दृष्येष्वधामिकेषु वर्तेत नेतरेषु)। रिक्त कोश की पूर्ति के विषय में और देखिए नीतिवाक्यामृत (कोश-समुद्देश, पृ० २०५)। परशुरामप्रताप (राजवल्लभकाण्ड) ने तो ऐसा उद्धरण दिया है जिससे सिद्ध होता है कि कोश की पूर्ति के लिए रसायन, धातुवाद आदि का प्रयोग किया जा सकता है ।१० शुक्र (४।२।११) ने ऋण पर धन लेने की बात भी चलायी है।११ शान्ति० (८८।२६-३०) में आया है कि राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य के धनिकों को आदर-सम्मान दे, क्योंकि वे राज्य के प्रधान तत्त्व होते हैं, इतना ही नहीं; उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वे उसके साथ जनता पर अनुग्रह करें।१२
राजा को कर देने के विषय में बहुत-से कारण बताये गये हैं। गौतम (१०।२८) का कहना है कि राजा रक्षा करता है अतः उसके लिए कर देना चाहिए। कहीं-कहीं तो ऐसा प्रकट हुआ है कि कर मानो राजा का वेतन है। राजा मनु ने प्रजा से इसी प्रकार का समझौता किया था (देखिए शान्ति० ६७ एवं ७०।१०, बौधायनधर्मसूत्र १।१०।१, नारद १८१४८, कौटिल्य १।१३) । कात्यायन (श्लोक १६-१७) का कहना है कि राजा भूमि का स्वामी है, किन्तु धन के अन्य प्रकारों का नहीं, वह उपज के छठे भाग का अधिकारी है। मनुष्य भूमि पर निवास करते हैं अतः वे साधारण रूप में स्वामी-से लगते हैं (किन्तु वास्तव में उनका स्वामित्व दूसरे ढंग का है। वास्तविक स्वामी तो राजा ही है)।१३
धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों एवं शिलालेखों में भाँति-भाँति के करों का उल्लेख हुआ है। राजा को जो कर दिया जाता है उसका प्राचीनतम नाम है 'बलि'। ऋग्वेद (७।६।५ एवं १०११७३१६) में साधारण लोगों के लिए 'बलिहृत्'
जा के लिए बलि, शुल्क या कर लाने वाले) शब्द का प्रयोग हुआ है।१४ तैत्तिरीय ब्राह्मण (२।७।१८।३) में आया है--"हरन्त्य स्मै विशो बलिम्" अर्थात् "लोग राजा के लिए बलि लाते हैं।" ऐतरेय ब्राह्मण (३५॥३) में वैश्य को 'बलिकृत" (दसरे को कर देने वाला) कहा गया है क्योंकि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय लोग अधिकांश में कर-मुक्त थे । देखिए प्रो० हाप्किंस की पुस्तक 'सोशल कण्डीशन आव दी रूलिंग क्लास' (जे० ए० ओ० एस, जिल्द १३, पृ० ८६) एवं फिक (पृ० ११६,) जहाँ करों के सम्बन्ध में जातकों का साक्ष्य (हवाला) दिया गया है । मनु (७८०), मत्स्य. (२१५४५७), रामायण (३।६।११), विष्णुधर्मसूत्र (२२) में 'बलि' शब्द का प्रयोग (राजा द्वारा लगाये गये कर के
१०. धातुबादप्रयोगैश्च विविधर्वर्धयेद्धनम् । ताम्नण साधयेत् स्वर्ण रौप्य वगेन साधयेत् ।। परशुरामप्रताप (राज.)।
११. धनिकेभ्यो भृति दत्त्वा स्वापत्तौ तद्धनं हरेत् । राजा स्वापत्समुत्तीर्णस्तत्त्वं दद्यात्सवृद्धिकम् ।। शुक्र० (४।२।११)।
१२. धनिनः पूजयेन्नित्यं पानाच्छादनभोजनैः । वक्तव्याश्चानुगृह्णीध्वं प्रजाः सह मयेति वै ॥ अंगमेतन्महद् राज्ये धनिनो नाम भारत । ककुदं सर्वभूतानां धनस्थो नात्र संशयः॥ शान्ति० (८८।२६-३०)।
१३. कात्यायनः । भूस्वामी तु स्मृतो राजा नान्यद्रव्यस्य सर्वदा । तत्फलस्य हि षड्भागं प्राप्नुयान्नान्यथैव तु ।। भूतानां तन्निवासित्वात्स्वामित्वं तेन कोर्तितम् । राजनीतिप्रकाश (पृ० २७१)। देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय २५, जहां राजा के भूमि-स्वामित्व पर विवेचन उपस्थित किया गया है।
१४. स निरुध्या नहुषो यह्वो अग्निविंशश्चक्रे बलिहृतः सहोभिः ॥ ऋ० (७।६।५); अथो त इन्द्रः केवलोविशो बलिहृतस्करत् ॥ ऋ० (१०।१७५।६); हरन्त्यस्मं विशो बलिम् । त० ब्रा० (२।७।१८।३।)
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