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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास शान्ति० (८७।२६-३३) में आया है कि अधिक कर लगाने के पूर्व राजा को चाहिए कि वह प्रजाजनों के समक्ष भाषण करे, यथा--"यदि शत्रु आक्रमण करता है तो तुम्हारा सब कुछ, यहाँ तक कि तुम्हारी पत्नियों तक को उठा ले जायगा, शत्रु तुमसे जो छीन लेगा वह पुनः तुम्हें वापस नहीं मिलेगा।" जूनागढ़ के अभिलेख में (एपि० इ०, जिल्द ८, पृ० ३६, जिल्द २, पृ० १५-१६) भी 'प्रणय' शब्द का प्रयोग हुआ है। कर-ग्रहण के सिलसिले में दूसरा सिद्धान्त बड़े कवित्वपूर्ण एवं आलंकारिक रूप में रखा गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि करदाता को कर हलका लगे, जिसे वह बिना किसी कठिनाई के दे सके । उद्योग० (३४।१७-१८) में आया है।--जिस प्रकार मधुमक्खी मधु तो निकाल लेती है, किन्तु फूलों को बिना पीड़ा दिये छोड़ देती है, उसी प्रकार राजा को मनुष्यों से बिना कष्ट दिये धन लेना चाहिए। मधुमक्खी मधु के लिए प्रत्येक फूल के पास जा सकती है, किन्तु उसे फूल की जड़ नहीं काट देनी चाहिए, माली के समान उसे व्यवहार करना चाहिए, न कि अंगारकारक (कोयला फूकने वाले) के समान (जो कोयला बनाने के लिए सम्पूर्ण पेड़ जड़सहित काट लेता है)। मन (७१२६ एवं १४०) ने संक्षिप्त रूप से इस प्रकार कहा है--"जिस प्रकार जोंक, बछडा एवं मधुमक्खी थोड़ा-थोड़ा करके अपनी जीविका के लिए रक्त, दूध या मधु लेते हैं, उसी प्रकार राजा को अपने राज्य से वार्षिक कर के रूप में थोड़ा-थोड़ा लेना चाहिए। राजा को न तो अपनी जड़ (कर न लेकर) और न दूसरों की जड़ (अधिक कर लेकर) काटनी चाहिए। यही बात शान्ति (८८१४-६) ने दूसरे ढंग से कही है। और देखिए धम्मपद (अध्याय ४६) राजा को मालाकार की भाँति न कि आंगारिक की भाँति कार्य करना चाहिए।५ कर-ग्रहण का तीसरा सिद्धान्त यह है कि कर-वृद्धि क्रमशः और वह भी एक समय, कम ही होनी चाहिए (शान्ति० ८८७-८) । करों को उचित समय एवं उचित स्थल पर उगाहना चाहिए (शान्ति० ८८।१२ एवं काम० ५।८३-८४)। ६ व्यापारियों पर कर लगाते समय राजा को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए; वस्तुओं के क्रय में कितना धन लगा है, राज्य में वस्तुओं की बिक्री कैसी होगी, कितनी दूरी से सामान लाया गया, मागं में खाने-पीने, सुरक्षा आदि की व्यवस्था में कितना धन लगा (मनु ७।१२७ = शान्ति० ८७।१३-१४) । शिल्पियों पर कर लगाने के पूर्व उनके परिश्रम एवं कुशलता आदि पर ध्यान देना चाहिए (शान्ति० ८८।१५) । राज्य के कोश के लिए सभी को कुछ-न-कुछ देना ही चाहिए । यहाँ तक कि दरिद्र लोगों को भी, जो कोई वृत्ति करते हैं, कर देना चाहिए । रसोई बनाने वालों, बढ़ इयों, कुम्हारों आदि को भी मास में एक दिन की कमाई कर के रूप में देनी चाहिए (मनु ७।१३७-१३८) । और देखिए गौतम (१०३१-३४), विष्णुधर्मसूत्र (३।३२) । किन्तु शुक्र (४।२।१२१) का कथन है कि मजदूरों एवं शिल्पियों को प्रत्येक पक्ष में एक दिन की बेगार देनी चाहिए। गौतम (१०॥३४) का कहना है कि बेगार के दिन राजा द्वारा उन्हें भोजन मिलना चाहिए। काम ३. यथा मध समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया। पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत् । मालाकार इवारामे न यथाङ्गारकारकः ॥ उद्योग० (३४।१७-२८)। यही बात पराशर (१९६२) ने भी कही है। मिलाइए धम्मपद (४६)-'यथापि भ्रमरो पुप्फ वण्णगंधं अहेव्यं । पलेति रसमादाय एवं गामे मुनी चरे ॥' ४. यथा राजाच कर्ता चस्यातां कर्मणि भागिनौ । संवेक्ष्य तु तथा राज्ञा प्रण याः सततं कराः॥नोच्छिन्द्यादास्मनो मूलं परेषां चापि तृष्णया। ईहाद्वाराणि संरुध्य राजा संप्रीतदर्शनः ।। शान्ति० (८७।१७-१८); मनु (८।१३६) ने भी आधा "नोच्छिन्द्यात् आदि" कहा है। ५. मालाकारोपमो राजन्भव मांगारिकोपमः । शान्ति (७१।२०); और देखिए शुक्रनीतिसार (४।२।११३), जहाँ ऐसी ही उपमा दी गयी है। ६. आददीत धन काले त्रिवर्गपरिवृद्धये । यथा गौः पाल्यते काले दुह्यते च तथा प्रजा॥ काम० (५।८३-८४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jaine www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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