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अध्याय ७
कोश (५)
(२१) का कहना है कि जिस राजा का कोश रिक्त हो जाता है वह नगरवासियों एवं ग्रामवासियों को चूसने लगता है । कौटिल्य (215) ने ठीक ही कहा है कि राज्य के सारे व्यापार कोश पर निर्भर रहते हैं, अतः राजा को सर्वप्रथम कोश पर ध्यान देना चाहिए । गौतम ( सरस्वती विलास द्वारा उद्धृत, पृ० ४६ ) का कहना है कि कोश राज्य अन्य : अंगों का आधार है । शान्ति० ( ११६ । १६ ) ने भी कोश की महत्ता गायी है । काम० ( १३ | ३३) ने तो यहाँ तक कहा है कि यह लौकिक प्रसिद्धि है कि राजा कोश पर आधारित है। विष्णुधर्मोत्तर ( २०६१।१७ ) का कहना है कि
राज्य के वृक्ष की जड़ है । प्राचीन भारत के भारतीय राज्यों के दो स्तम्भ थे; राजस्व एवं सैन्यबल । मनु (७/६५ ) का कहना है कि राज्य का कोश एवं शासन राजा पर निर्भर रहता है, अर्थात् राजा को उन पर व्यक्तिगत ध्यान देना चाहिए । यही बात यज्ञ ० ( १।३२७-३२८) ने अपने ढंग से कही है । और देखिए काम० (५।७७ ) एवं शुक्र० (१| २७६-२७८) । राजतरंगिणी ( ७।५०७-५०८) का कथन है कि कश्मीर का राजा कलश (सन् १०६३-१०८६ ई०) वणिक की भाँति आय-व्यय का ब्यौरा रखता था और बड़ी सावधानी बरतता था । उसके पार्श्व में सदा एक लिपिक रहता था, जिसके हाथ में लिखने के लिए खड़िया एवं भूर्जं ( भोजपत्र ) रहा करते थे ।
कोश भरने का प्रमुख साधन है कर-ग्रहण, अतः धर्मशास्त्रों द्वारा उपस्थापित कर ग्रहण के सिद्धान्तों की व्याख्या कर लेना उचित है। प्रथम सिद्धान्त यह था कि स्मृतियों द्वारा निर्धारित कर के अतिरिक्त अन्य कर राजा नहीं लगा सकता था, अर्थात् राजा अपनी ओर से मनमानी नहीं कर सकता था। कर की मात्रा वस्तुओं के मूल्य एवं समय पर निर्भर थी, क्योंकि आक्रमण, दुर्भिक्ष आदि विपत्तियाँ भी घहरा सकती थीं । गौतम (१०/२४), मनु ( ७ १३०), विष्णुधर्मसूत्र ( ३।२२-२३) ने घोषित किया है कि राजा साधारणतया उपज का छठा भाग ले सकता है, किन्तु कौटिल्य (५/२), मनु ( १०1११८ ), शान्ति० (अध्याय ८७ ), शुक्र० (४।२६ - १० ) ने छूट दे दी है कि आपत्तियों के समय राजा को आपत्तिकाल में भारी कर लगाने के लिए प्रजा से स्नेहपूर्ण याचना (प्रणय) करनी चाहिए और अनुर्वर भूमि पर तो भारी कर लगाना ही नहीं चाहिए । कौटिल्य ने यह भी कहा हैकि एक आपति-काल में एक से अधिक बार कर नहीं लगाना चाहिए।
१. कोशमूला: कोशपूर्वाः सर्वारम्भाः । तस्मात्पूर्व कोशमवेक्षेत । कौ० २२; कोशश्च सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभिः । कोशमूला हि राजानः कोशो वृद्धिकरो भवेत् ॥ शान्ति० ( ११६ १६ ) ; कोशमूलो हि राजेति प्रवादः सार्वलौकिकः । काम० (१३।३३), यह बुधभूषण ( पृ० ३६) में भी पाया जाता है; कोशस्तु सर्वथा अभिसंरक्ष्य इत्याह गौतमः । तन्मूलत्वात्प्रकृतीनामिति । सरस्वतीविलास ( पृ० ४६ ) |
२. कोशमकोशः प्रत्युत्पन्नार्थकृच्छ्रः संगृह्णीयात् । जनपदं महान्तमत्व प्रमाण वा देवमातृकं प्रभूतधान्यं धान्यस्यांशं तृतीयं चतुर्थं वा याचेत । इति कर्षकेषु प्रणयः । इति व्यवहारिषु प्रणयः । सकृदेव न द्विः प्रयोज्यः । अर्थशास्त्र (५।२) ।
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