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राजधानी एवं उसका परिवेश
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व्यापारियों, प्रमुख शिल्पकारों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, वेश्याओं, बढ़इयों, शूद्रों आदि के आवासों का उल्लेख किया है। राजधानी के मध्य में अपराजित, अप्रतिहत, जयन्त एवं वैजयन्त के मूर्ति-गृह तथा शिव, कुबेर, अश्विनौ, लक्ष्मी, मदिरा (दुर्गा) के मन्दिर बने रहने चाहिए। प्रमुख द्वारों के नाम ब्रह्मा, यम. इन्द्र एवं कार्तिकेय के नामों पर रखे जाने चाहिए। खाई के आगे १०० धनुषों (४०० हाथ) की दूरी पर पवित्र पेड़ों के मण्डप, कुञ्ज एवं बाँध होने चाहिए। उच्च वर्णों के श्मशान-स्थल दक्षिण में तथा अन्य लोगों के पूर्व या उत्तर में होने चाहिए। श्मशान के आगे नास्तिकों एवं चाण्डालों के आवास होने चाहिए। दस घरों पर एक कूप होना चाहिए । तेल, अन्न, चीनी, नमक, दवाएँ, सूखी तरकारियाँ, इंधन, हथियार तथा अन्य आवश्यक सामग्रियाँ इतनी माना एवं संख्या में एकत्र होनी चाहिए कि आक्रमण या घिर जाने पर वर्षों तक किसी वस्तु का अभाव न हो सके। उपर्युक्त विवरण से मत्स्यपुराण की बहुत-सी बातों का मेल नहीं बैठता(मत्स्य. २१७१६-८७)। गजनीतिप्रकाश (पृ० २०८-२१३) एवं राजधर्मकाण्ड (पृ० २८-३६) ने मत्स्यपुराण को अधिकांश में उद्धृत किया है । राजनीतिप्रकाश (पृ० २५४-२१६) ने देवीपुराण से नगर, पुर, हट्ट, पुरी, पत्तन, मन्दिरों के निर्माण के विषय में बहुत-से अंश उद्धृत कर रखे हैं। पाणिनि (७।३।१४) ने ग्राम एवं नगर का अन्तर बताया है (प्राचां ग्रामनगराणाम् )। पतञ्जलि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि ग्राम, घोष, नगर एवं संवाह भाँति-भाँति के जनअधिवसितों(बस्तियों) के या बस्तियों के दलों के नाम हैं । वायुपुराण (६४१४०) ने पृथक् रूप से पुरों (नगरों या पुरियों), घोषों (ग्वालों के ग्रामों), ग्रामों एवं पत्तनों का उल्लेख किया है। राजधानी, प्रासाद, कचहरियों, कार्यालयों, खाइयों आदि के निर्माण के विषय में देखिए शुक्र० (१।२१३-२५८), युक्तिकल्पतरु (पृ० २२), वायु० (८1१०८), मत्स्य. (१३०)। शुक्र ० (१।२६०-२६७) ने पद्या (फुटपाथ), वीथी (गली) एवं मार्ग की चौड़ाई क्रम से ३, ५ एवं १० हाथ कही है । अयोध्या की राजधानी के वर्णन के लिए देखिए रामायण (२।१००।४०-४२)। रामायण (६।११२१४२, सिक्तरध्यान्तरायणा) एवं महाभारत (आदि० २२१।३६) से पता चलता है कि सड़कों पर छिड़काव होता था। हर्षचरित (३) में बाण ने स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) का सुन्दर वर्णन किया है। राजधानी के स्थानीय शासन के विषय में देखिए कौटिल्य (२॥३६)। पहाड़पुर पन (गुप्त संवत् १५६ == ४७८-६ ई०) से पता चलता है कि नगर-श्रेष्ठी (राजधानी के व्यापारियों एवं धनागार-श्रेष्ठियों के प्रमुख) का चुनाव सम्भवतः स्वयं राजा करता था (एपि० इ०, जिल्द २०, पृ• ५६)। सम्भवतः राजधानी के शासक को शासन-कार्य में सहायता देने के लिए पौरमुख्यों या पौरवुद्धों की एक समिति (बोर्ड) होती थो। दामोदरपुर के पन्न (एपि० इ०, जिल्द १५, पृ० १३०, १३३, गुप्त संवत् १२६) में नगर-सेठ (नगर-श्रेष्ठी) का उल्लेख है । मेगस्थनीज (मैक्रिडिल की ऐंश्यण्ट इण्डिया, मगमेण्ट ३४, पृ० १८७) ने पालिवोधा (पाटलिपुत्र) नगर तथा उसके शासन का वर्णन किया है। वह कहता है कि ५-५ सदस्यों की ६ समितियाँ थीं, जो क्रम से (१) शिल्पों, (२) विदेशियों, (३) जन्म-मरण, (४) व्यापार, बटखरों, (५) निर्मित सामानों एवं (६) बेची हुई वस्तुओं का दसवाँ भाग एकत्र करने अर्थात् चुंगी का प्रबन्ध करती थीं। मेगस्थनीज के कथन से पता चलता है कि पाटलिपुत्र ८०स्टैडिया लम्बा एवं १५ स्टैडिया चौड़ा था, इसका आकार सामानान्तर चतुर्भज की भाँति था और
२. मिलाइए "ग्रामा हट्टादिशून्याः, पुरो हट्टादिमत्यः, ता एव महत्यः पत्तनानि, दुर्गाण्योदकादीनि । खेटाः कर्षकग्रामाः । खर्बटाः पर्वतप्रान्तग्रामा इति ।" श्रीधर (भागवत० ४।१८।३१), राजनीतिकौस्तुभ द्वारा उद्ध त (पृ० १०२)। शिल्परत्न (अ० ५) में ग्राम, खेटक, खर्वट, दुर्ग, नगर, राजधानी, पत्सन, द्रोणिक, शिबिर, स्कन्धावार, स्थानीय, विडम्बक, निगम एवं शाखानगर की परिभाषाएँ दी गयी हैं । मय मत (१०६२)ने इनमें दस का उल्लेख किया है और (१०) ग्राम, खेट, खर्वट, दुर्ग तथा नगर के विस्तार का वर्णन किया है ।
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