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धर्मशास्त्र का इतिहास सके और जिसमें केवल एक ही संकीर्ण मार्ग हो)। मनु (७७१) ने गिरिदुर्ग को सर्वश्रेष्ठ कहा है, किन्तु शान्ति ० (५६॥ ३५) ने नृदुर्ग को सर्वोत्तम कहा है, क्योंकि उसे जीतना बड़ा ही कठिन है । मानसोल्लास (२।५, पृ.० ७८) ने प्रस्तरों, ईटों एवं मिट्टी से बने अन्य तीन प्रकार जोड़कर नौ दुर्गों का उल्लेख किया है । मनु (७।७५), सभा० (५॥३६), अयोध्या० (१००।५३), मत्स्य० (२१७।८), काम० (४।६०), मानसोल्लास (३६५, श्लो० ५५०-५५५), शुक्र० (४१६१२-१३), विष्णुधर्मोत्तर (२।२६।२०-८८) के अनुसार दुर्ग में पर्याप्त आयुध, अन्न, औषध, धन, घोड़े, हाथी, भारवाही पशु, ब्राह्मण, शिल्पकार, मशीनें (जो सैकड़ों को एक बार मारती हैं), जल एवं भूसा आदि सामान होने चाहिए । नीतिवाक्यामृत (दुर्गसमुद्देश, पृ० १६६)का कहना है कि दुर्ग में गुप्त सुरंग होनी चाहिए जिससे गुप्त रूप से निकला जा सके, नहीं तो वह बन्दी-गृह-सा हो जायगा, वे ही लोग आने-जाने पायें जिनके पास संकेत-चिह्न हों और जिनकी हुलिया भली भाँति ले ली गयी हो । विशेष जानकारी के लिए देखिए कौटिल्य (२।३), राजधर्मकाण्ड (पृ० २८-३६), राजधर्मकौस्तुभ (पृ० ११५-११७), जहाँ उशना, महाभारत, मत्स्य०, विष्णुधर्मोत्तर आदि से कतिपय उद्धरण दिये गये हैं।
ऋग्वेद में बहुधा नगरों का उल्लेख हुआ है। इन्द्र ने पुरुकुत्स के लिए सात नगर ध्वस्त कर डाले (ऋ०११६३७)। इन्द्र ने दस्युओं को मारा और उनके अयस् (ताम्र ; 'हत्वी दस्यून् पुर आयसीर् नि तारीत्') के नगरों को नष्ट कर दिया (ऋ० १२०८)। स्पष्ट है, ऋग्वेद के काल में भी प्राकारयुक्त दुर्ग होते थे। किन्तु दीवारें मिट्टी या लकड़ी की थीं या पत्थर, ईटों की थीं; कुछ स्पष्ट रूप से कहा नहीं जा सकता । देखिए हॉप्किस, जे० ए० ओ० एस०, जिल्द १३ पृ १७४-१७६ । तैत्तिरीयसंहिता (६।२।३।१) ने असुरों के तीन नगरों का उल्लेख किया है जो अयस्, चाँदी एवं सोने (हरिणी)के थे। शतपथब्राह्मण में वर्णित अग्निचयन में सहस्रों पक्की ईटों की आवश्यकता पड़ती थी। सिन्धु घाटी की नगरियों (मोहेनजोदड़ो एवं हरप्पा) में पक्की ईटों का प्रयोग होता था (मार्शल, जिल्द १, पृ० १५-२६)। ऋग्वेद काल में भी ऐसा पाया जाना असम्भव नहीं होगा। रामायण एवं महाभारत में प्राकारों (दीवारों), तोरणों, अट्टालकों (ऊपरी मंजिलों), उपकुल्याओं आदि का उल्लेख राजधानियों के सिलसिले में पाया जाता है। कभी-कभी नगरों के नाम पर ही द्वारों के नाम पड़ जाते थे । पाण्डव लोग हस्तिनापुर के बाहर वर्धमानपुर द्वार से गये (वनपर्व १।६-१०)। महलों में नर्तनागार भी होते थे (विराटपर्व २२।१६ एवं २५-२६) । और देखिए शान्ति (६६।६०, ८६।४-१५)। रामायण (५।२।५०-५३) में लंका के सात-सात एवं आठ-आठ मंजिल वाले प्रासादों एवं पच्चीकारी से युक्त फर्शों का उल्लेख मिलता है । बृहत्संहिता (अध्याय ५३) में वास्तुशास्त्र पर ११५ श्लोक आये हैं जिनमें भवनों, प्रासादों आदि के निर्माण के विषय में लम्बा-चौड़ा आख्यान पाया जाता है। इन में दीवारों के लिए ईटों या लकड़ी चलायी गयी है।
राजा की राजधानी दुर्ग के भीतर या सर्वथा स्वतन्त्र रूप से निर्मित हो सकती थी। मनु (७१७० एवं ७६), आश्रमवासिक० (५।१६-१७), शान्ति० (८६।६-१०), काम० (४१५७), मत्स्य० (२१७।६)एवं शुक्र ० (१।२१३२१७)ने राजधानी के निर्माण के विषय में उल्लेख किया है। कौटिल्य (२।४) ने विस्तार के साथ राजधानी के निर्माण की व्यवस्था दी है । कौटिल्य के मत से राजधानी के विस्तार-द्योतक रूप में पूर्व से पश्चिम तीन राजमार्ग तथा उत्तर से दक्षिण तीन राजमार्ग होने चाहिए । राजधानी में इस प्रकार बारह द्वार होने चाहिए। उसमें गप्त भमि एवं जल होना चाहिए। रथमार्ग एवं वे मार्ग जो द्रोणमुख, स्थानीय, राष्ट्र एवं चरागाहों की ओर जाते थे, चौड़ाई में चार दण्ड (१६ हाथ) होने चाहिए । कौटिल्य ने इसके उपरान्त अन्य कामों के लिए बने मार्गों की चौड़ाई का उल्लेख किया है। राजा का प्रासाद पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होना चाहिए और लम्बाई एवं चौड़ाई में सम्पूर्ण राजधानी का भाग होना चाहिए। राजप्रासाद राजधानी के उत्तर में होना चाहिए। राजप्रासाद के उत्तर में राजा के आचार्य, पुरोहित, मन्त्रियों के गृह तथा यज्ञ-भूमि एवं जलाशय होने चाहिए। कौटिल्य ने इसी प्रकार राजप्रासाद के चतुर्दिक अध्यक्षों,
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