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अध्याय ६
दुर्ग (किला या राजधानी) (४)
मनु (६।२६४)ने राजधानी को राष्ट्र के पूर्व रखा है। मेधातिथि (मनु ६।२६५)एवं कुल्लूक का कथन है कि राजधानी पर शत्रु के अधिकार से गम्भीर भय उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि वहीं सारा भोज्य पदार्थ एकत्र रहता है, वहीं प्रमुख तत्व एवं सैन्यबल का आयोजन रहता है, अतः यदि राजधानी की रक्षा की जा सकी तो परहस्त-गत राज्य लौटा लिया जा सकता है और देश की रक्षा की जा सकती है। भले ही राज्य का कुछ भाग शव जीत ले किन्तु राजधानी
रहनी चाहिए। राजधानी ही शासन-यंत्र की धुरी है। कुछ लेखकों ने (यहाँ तक कि मनु ने भी, ७६६-७०) पुर (राजधानी) या दुर्ग को राष्ट्र के उपरान्त स्थान दिया है। प्राचीन युद्ध-परम्परा तथा उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति के कारण ही राज्य के तत्त्वों में राजधानी एवं दुर्गों को इतनी महत्ता दी गयी है। राजध दर्पण थी और यदि वह ऊंची-ऊँची दीवारों से सुदृढ, रहती थी तो सुरक्षा का कार्य भी करती थी। याज्ञवल्क्य (११३२१) ने लिखा है कि दुर्ग की स्थिति से राजा की सुरक्षा, प्रजा एवं कोश की रक्षा होती है(जनकोशात्मगप्तये)। मन (७७४) ने दुर्ग के निर्माण का कारण भली भाँति बता दिया है। दुर्ग में अवस्थित एक धनुर्धर सौ धनुर्धरों को तथा सौ धनुर्धर एक सहस्र धनुर्धरों को मार गिरा सकते हैं । देखिए पञ्चतन्त्र (१।२२६ एवं २।१४) । राजनीतिप्रकाश द्वारा उद्धत बहस्पति में आया है कि अपनी, अपनी रानियों, प्रजा एवं एकत्र की हुई सम्पत्ति की रक्षा के लिए राजा को प्राकारों (दीवारों)एवं द्वार से युक्त दुर्ग का निर्माण करना चाहिए।' कौटिल्य (२।३ एवं ४)ने दुर्गों के निर्माण एवं उनमें से किसी एक में राजधानी बनाने के विषय में सविस्तर लिखा है। उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है. यथाऔदक (जल से सुरक्षित, जो द्वीप-सा हो, जिसके चारों ओर जल हो), पार्वत (पहाड़ी पर या गुफा वाला), धाम्वन (मरुभूमि वाला, जलविहीन भूमिखण्ड पर जहां झाड़-झंखाड़ हों या अनुर्वर भूमि हो) तथा वन-दुर्ग, जहाँ खंजन, जलमगियाँ हों, जल हो, झाड़-झंखाड़ और बेंत एवं बाँसों के झुण्ड हों। कौटिल्य का कहना है कि प्रथम दो प्रकार के दुर्ग जन-संकल स्थानों की सुरक्षा के लिए हैं और अन्तिम दो प्रकार जंगलों की रक्षा के लिए हैं। वायु० (१०८)ने दर्ग के चार प्रकार दिये हैं। मनु (७१७०), शान्ति० (५६।३५ एवं ८६।४-५), विष्णुधर्मसूत्न (३।६), मत्स्य० (२१७॥ ६-७), अग्नि० (२२२॥४-५), विष्णुधर्मोत्तर (२।२६।६-६, ३।३२३।१६-२१), शुक्र ० (४१६)ने छः प्रकार वताये हैं, यथा--धान्य वर्ग(जलविहीन, खुली भूमि पर पांच योजन के घेरे में), महीदुर्ग (स्थल-दुर्ग, प्रस्तर-खण्डों या ईटों से निर्मित प्राकारों वाला, जो १२ फुट से अधिक चौड़ा और चौड़ाई से दुगुना ऊँचा हो), जलदुर्ग(चारों ओर जल से आवती वार्भ-दुर्ग(जो चारों ओर से एक योजन तक कँटीले एवं लम्बे-लम्बे वृक्षों, कंटीले लता-गुल्मों एवं झाड़ियों से आवत हो). नृदुर्ग(जो चतुरंगिनी सेना से चारों ओर से सुरक्षित हो), गिरिदुर्ग (पहाड़ों वाला दुर्ग जिप्त पर कठिनाई से चढ़ा जा
१. बृहस्पतिराह । आत्मदारार्थलोकानां सञ्चितानां तु गुप्तये । नृपतिः कारयेद, दुर्ग प्राकारद्वारसंयुतम् ॥ राजनीतिप्रकाश, पृ० २०२ एवं राजधर्मकाण्ड, पृ० २८ ।
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