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धर्मशास्त्र का इतिहास
राजा अन्यायपूर्वक किसी पर अर्थ-दण्ड लगाता है तो उसे उस दण्ड का तीन गुना वरुण को देना पड़ता है और वह उस धन को या तो जल में छोड़ देता है या ब्राह्मणों में बांट देता है (याज्ञ० १।३०७) । जहाँ सामान्य अपराधी को एक कार्षापण दण्ड देना पड़ता था वहाँ राजा को एक सहस्र देना पड़ता था (मनु ८।३३६) । इस विषय में और देखिए कौटिल्य (४।१३, अन्तिम दो पद्य), मनु (६२४५) एवं याज्ञ० (२।३०७)। किन्तु ये नियम केवल धर्मशास्त्रकारों की सदभावना के द्योतक हैं, कदाचित ही किसी राजा ने अपने को दण्डित किया हो! इसी से मध्यकाल के कुछ लेखकों ने इस विषय में प्रयुक्त "राजा" शब्द को सामन्त के बराबर माना है, न कि किसी 'स्वतन्त्र राजा' के अर्थ में।।
रामायण (२।१००।४३-४६) में सुशासित राज्य का वर्णन यों हुआ है-"मैं आशा करता हूँ कि तुम्हारे राज्य में सौ चैत्य (पवित्र वृक्षों के लिए मण्डप या उच्च स्थल) होंगे ; वहाँ के लोग भली भाँति रक्षित होंगे; वहाँ मन्दिर, प्रपा (पोसरा), तालाब आदि होंगे; नर-नारी गण सुखपूर्वक रहते होंगे, जहाँ मेले एवं उत्सव होते होंगे; जहाँ भूमि में पर्याप्त कृषि कर्म होता होगा; जहाँ पशु बिना किसी भय के विचरण करते होंगे; जहाँ के खेत केवल वर्षा-जल पर ही निर्भर नहीं रहते होंगे (अर्थात् जहाँ नहरों, तालाबों, कुओं आदि की पूर्ण व्यवस्था होती होगी); जो सुन्दर होगा और होगा हिंस्र पशुओं एवं अन्य भयों से विहीन; जहाँ खाने होंगी; जहाँ सौख्य एवं सम्पत्ति की प्रचुरता होगी और जो दुष्ट लोगों से विहीन होगा।" इस विषय में और देखिए आदिपर्व (अध्याय १०६)। विष्णुधर्मोत्तर (१।१३।२-१२) में प्राचीन अयोध्या का बहुत ही सुन्दर वर्णन उपस्थित किया गया है।
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