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राजा के विशेषाधिकार
६६१ द्वारा सम्पत्ति ग्रहण की सहमति, किसी नवीन वस्तु की भेंट, माँगने पर किसी वस्तु का प्रदान, समय पर प्रतिश्रुत वस्तुओं को भेज देना । भेद में निम्न बातें ज्ञातव्य हैं, यथा-- मन्त्रियों या सामन्तों, युवराज तथा उच्चाधिकारियों को घूस या भेंट देना, राजा एवं मन्त्रियों के बीच अविश्वास उत्पन्न करना, राजा को अन्य लोगों के बिरोध में कर देना, सुन्दर व्यक्तियों के विरोध में राजा को यह कहकर उभाड़ना कि वे अन्तःपुर में आते-जाते हैं, धनिकों एवं राजा के बीच अविश्वास उत्पन्न करना आदि-आदि। भेद उपाय में गुप्तचर लगे रहते हैं, जो दोनों पक्षों से वेतन लेते हैं (उभय- वेतनभोगी ) । २७ और देखिए कौटिल्य (1919), मत्स्य० (२२३), शुक्र० ( ४११०२५-५४ ) | दण्ड का अर्थ है अपने देश में अपराधी को फाँसी देना, शारीरिक दण्ड देना या धन-दण्ड देना तथा शत्रुओं से युद्ध करना, शत्रु-देश का नाश करना, धन-धान्य, पशु, दुर्ग आदि पर अधिकार करना, ग्रामों, जंगलों को जलाना, लोगों को बन्दी बनाना आदि ।
राजा के बहुत से विशेषाधिकार थे। हमने बहुत पहले देख लिया है कि गड़े हुए धन पर राजा का अधिकार होता था । इस विषय में कौटिल्य (४1१) ने लिखा है कि खानों, रत्नों एवं गड़े हुए धन की सूचना देने वाले को है भाग मिलता था, किन्तु यदि सूचना देने वाला राजकर्मचारी होता था तो उसे पई भाग ही मिलता था। एक लाख पणों के ऊपर वाला गड़ा धन सम्पूर्ण रूप से राजा को ही प्राप्त होता था (बताने वाले को एक लाख पर ही है भाग मिलता था ) । ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य लोगों के निःसन्तान मर जाने पर उनकी सम्पत्ति राजा की हो जाती थी ( देखिए इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय ३) । इस विषय में हम आगे 'व्यवहार एवं न्याय' वाले अध्याय में पुनः लिखेंगे । त्यागी हुई सम्पत्ति परभी राजा का ही अधिकार होता था (देखिए गौतम १० १३६-३८, वसिष्ठ १५/१६, मनु ८३०-३३, यात्र० २।३३, १७३-१७४, शंख - लिखित) । गौतम एवं बौधायन ( १।१०।१७ ) का कथन है कि धन प्राप्त होने के एक वर्ष के उपरान्त ही राजा को उस पर अधिकार करना चाहिए। इस बीच में उसे डुग्गी पिटवा कर लोगों को तत्सम्बन्धी सूचना दे देनी चाहिए। किन्तु मनु (अध्याय ८) ने इस विषय में तीन वर्ष की अवधि दी है। मिताक्षरा ( याश० २।३३ ) ने लिखा है कि यदि वास्तविक स्वामी अपना अधिकार सिद्ध कर देता है तो एक वर्ष के भीतर उसे सम्पूर्ण धन विना कर दियं मिल जाता है, किन्तु दूसरे वर्ष में उसे सम्पूर्ण धन का दई भाग सुरक्षा से रखे जाने के कारण कर के रूप में दे देना पड़ता है और इसी प्रकार तीसरे वर्ष में द े भाग देना पड़ जाता है । किन्तु यदि स्वामी तीन वर्षों के उपरान्त जाता है तो उसे भाग देना पड़ता है। जो व्यक्ति धन का पता लगाता है उसे राजा के भाग का भाग मिल जाता है । यदि स्वामी नहीं आता है तो पाने वाले को भाग और राजा को भाग मिल जाता है। यदि स्वामी तीन वर्षों के उपरान्त आये और इस बीच में राजा उसके धन को प्राप्त कर ले तो उसे उस धन को उपर्युक्त नियम के अनुसार लौटाना पड़ता है। इसी प्रकार प्राप्त पशुओं के विषय में भी नियम हैं ।
राजा को साक्षी के रूप में कोई नहीं बुला सकता था । देखिए कौटिल्य ( ३३२), मनु (८।६५) एवं विष्णु
धर्ममूत्र (८२ ) 1
वैधानिक रूप से कोई भी व्यक्ति राजा के अन्याय पर उसे अपराधी नहीं ठहरा सकता था । किन्तु धर्मशास्त्रकारों ने कहा है कि धर्म राजाओं का भी राजा है (बृहदारण्यकोपनिषद् १।४।१४ ), वरुण राजाओं को भी दण्ड देने वाला है। (मनु ६ । २४५.) ; अतः स्पष्ट है कि उन्होंने राजा के उच्चतर स्वभाव एवं अन्तःकरण की ओर संकेत किया है। यदि
२७. शत्रुस्थैरात्मपुरुषं गूढै रुभयवेतनैः । भीतापमानितान् क्रुद्धान् भेदयेच्च नृसङ्गतान् ॥ प्राणापहो मानभंगा धनहानिश्च बन्धकः । दाराभिलाषोऽङ्गभङ्ग इति भेदोऽन षडविधः ।। मानसोल्लास २।१८, श्लो० ६८८- ६६६, पृ० ११८ |
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