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दक्ष, पितामह, पुलस्त्य, प्रचेता
जीवानन्द के संग्रह में जो दक्षस्मृति है, उसमें ७ अध्याय एवं २२० श्लोक हैं। इसके मुख्य विषय ये हैं-चार आश्रम, ब्रह्मचारियों के दो प्रकार; द्विज के आह्निक धर्म; कर्गों के विविध प्रकार, नौ कर्म; नौ विकर्म ; नौ गुप्त कर्म; नौ कर्म जो खुलकर किये जायें; दान में न दी जानेवाली वस्तुएँ; दान; भली पत्नी की स्तुति ; शौच के' दो प्रकार; जन्म-मरण पर अशौच ; योग एवं उसके पडंग, यथा प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा, तर्क एवं समाधि; साधुओं द्वारा त्यागने योग्य आठ प्रकार के मैथुन ; भिक्ष-धर्म ; द्वैत एवं अद्वैत।
यह स्मृति वस्तुत: बहुत प्राचीन है। विश्वरूप, मिताक्षरा, अपरार्क एवं स्मृतिचन्द्रिका में जो अंश उद्धत हैं वे किसी-न-किसी प्रकाशित संस्करण में मिल ही जाते हैं।
४४. पितामह विश्वरूप द्वारा उद्धृत वृद्ध-याज्ञवल्क्य के श्लोक में पितामह धर्मवक्ताओं में कहे गये हैं। यह स्मृति व्यवहार से विशेष सम्बन्ध रखती है। विश्वरूप, मिताक्षरा ने पितामहस्मृति से व्यवहार-सम्बन्धी उद्धरण लिये हैं। इस स्मृति में वेद, वेदांग, मीमांसा, स्मृतियाँ, पुराण एवं न्याय धर्मशास्त्रों में गिने गये हैं। पितामह ने बृहस्पति के समान नौ दिव्यों की चर्चा की है, किन्तु याज्ञवल्क्य एवं नारद में केवल पाँच ही दिव्य दिये गये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने भी इससे उद्धरण लिये हैं। व्यास की भांति पितामह ने क्रयपत्र, दिलिपत्र, गान्धिपत्र, विशुद्धपत्र नामक लेखप्रमाणों की चर्चा की है। स्मृति चन्द्रिका में पितामह से १८ प्रकृतियों, यथा---पोती, वर्षमान आदि की संख्या उद्धृत है। इसमें व्यवहार के २२ पद पाये जाते हैं। पितामह के अनुसार न्यायालय में लिपि, गणक, शास्त्र, साध्यपाल, सभासद, सोना, अग्नि एवं जल नामक आठ करण होने चाहिए। इसी प्रकार अन्य पदों की चर्चाएँ हैं।
पितामह बृहस्पति के बाद आते हैं, क्योंकि उन्होंने बहस्पति के मत का हवाला दिया है, यथा-एक ही ग्राम, समाज, नगर, श्रेणी, सार्थसेना (कारवाँ) या सेना के लोगों को अपनी ही परम्पराओं के अनुसार विवाद का निपटारा करना चाहिए। पितामह की तिथि ४०० एवं ७०० ई० के बीच में कहीं पड़नी चाहिए।
४५. पुलस्त्य वृद्ध-याज्ञवल्क्य के अनुसार पुलस्त्य एक धर्मवक्ता हैं। विश्वरूप ने शरीर-शौच के सिलसिले में उनका एक श्लोक उद्धृत किया है। मिताक्षरा ने एक उद्धरण में कहा है कि श्राद्ध में ब्राह्मण को मुनि का भोजन, क्षत्रिय एवं वैश्य को मांस तथा शूद्र को मधु खाना चाहिए। संध्या, श्राद्ध, अशौच, यति-धर्म, प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में अपरार्क ने पुलस्त्य से बहुत उद्धरण लिये हैं। आह्निक एवं श्राद्ध पर स्मृतिचन्द्रिका ने पुलस्त्य का उल्लेख किया है। दानरत्नाकर ने मृगचर्म-दान के बारे में पुलस्त्य का उद्धरण दिया है। पुलस्त्यस्मृति की तिथि ४०० एवं ७००ई० के मध्य में अवश्य होनी चाहिए।
४६. प्रचेता पराशर ने प्रचेता (प्रचेतस्) का नाम ऋषियों में लिया है, किन्तु याज्ञवल्क्य' ने इनका नाम धर्मशास्त्रकारों में नहीं लिया है। आह्निक कर्तव्यों (आचारों), श्राद्ध, अशौच, प्रायश्चित्त के विषय में मिताक्षरा एवं अपरार्क ने प्रचेता महोदय के कई उद्धरण लिये हैं। मिताक्षरा ने उद्धरण देते हुए कहा है कि कर्मचारियों,
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