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प्राक्कथन
'व्यवहारमयूख' के संस्करण के लिए सामग्री संकलित करते समय मेरे ध्यान में आया कि जिस प्रकार मैंने 'साहित्यदर्पण' के संस्करण में प्राक्कथन के रूप में "अलंकार साहित्य का इतिहास" नामक एक प्रकरण लिखा है, उसी पद्धति पर 'व्यवहारमयूख' में भी एक प्रकरण संलग्न कर दूं, जो निश्चय ही धर्मशास्त्र के भारतीय छात्रों के लिए पूर्ण लाभप्रद होगा। इस दष्टि से मैं जैसे-जैसे धर्मशास्त्र का अध्ययन करता गया. मझे ऐसा दीख पडा कि सामग्री अत्यन्त विस्तृत एवं विशिष्ट है, उसे एक संक्षिप्त परिचय में आबद्ध करने से उसका उचित निरूपण न हो सकेगा; साथ ही उसकी प्रचुरता के समुचित परिशान, सामाजिक मान्यताओं के अध्ययन, तुलनात्मक विधिशास्त्र तथा अन्य विविष शास्त्रों के लिए उसकी जो महत्ता है, उसका भी अपेक्षित प्रतिपादन न हो सकेगा। निदान, मैंने यह निश्चय किया कि स्वतन्त्र रूप से धर्मशास्त्र का एक इतिहास ही लिपिबद्ध करूं। सर्वप्रथम, मैंने यह सोचा कि एक जिल्द में आदि काल से अब तक के धर्मशास्त्र के कालक्रम तथा विभिन्न प्रकरणों से युक्त ऐतिहासिक विकास के निरूपण से यह विषय पूर्ण हो जायगा। किन्तु धर्मशास्त्र में आनेवाले विविध विषयों के निरूपण के बिना यह ग्रन्थ सांगोपांग नहीं माना जा सकता। इस विचार से इसमें वैदिक काल से लेकर आज तक के विधि-विधानों का वर्णन आवश्यक हो गया। भारतीय सामाजिक संस्थाओं में और सामान्यतः भारतीय इतिहास में जो क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं तथा भारतीय जनजीवन पर उनके जो प्रभाव पड़े हैं, वे बड़े गम्भीर हैं, चूंकि हमारे आचार्य उनके संबन्ध में अनोखी धारणाएँ रखते हैं, इसलिए मैं निकट भविष्य में इस पुस्तक का अनुवाद मातृभाषा मराठी एवं संस्कृत में करने का संकल्प इस आशा से करता हूँ कि उसे पढ़ने के बाद वे लोग अपने विचारों में स्वागत योग्य परिवर्तन का अनुभव करेंगे।
प्रस्तुत माग में वर्णनीय विषयों के रूप में क्रमश: धर्म, धर्मशास्त्र, वर्ण, उनके कर्तव्य, अधिकार, अस्पृश्यता, दास-प्रथा, संस्कार, उपनयन, आश्रम, विवाह (समी सामाजिक प्रश्नों के साथ), आह्निक आचार, पंच महायज्ञ, दान, प्रतिष्ठा, उत्सर्ग एवं गृह्य तथा श्रौत (वैदिक) यज्ञों का विवेचन किया गया है। अगले माग में राजशास्त्र, व्यवहार (विषि एवं प्रक्रिया), अशोच (जन्म और मृत्यु से उत्पन्न सूतक),श्राद्ध, प्रायश्चित्त, तीर्थ, व्रत, काल, शान्ति, धर्मशास्त्र पर मीमांसा आदि का प्रभाव, समय समय पर धर्मशास्त्र को परिवर्तित करनेवाली रीति एवं परम्परा और धर्मशास्त्र 'की भावी प्रगति एवं विकास प्रति प्रकरणों का विवेचन किया जायगा।
यद्यपि, उच्चकोटि के विश्वविख्यात विद्वानों ने धर्मशास्त्र के विशिष्ट विषयों पर विवेचन का प्रशस्त कार्य किया है, फिर भी, जहाँ तक मैं जानता हूँ, किसी लेखक ने धर्मशास्त्र में आये हुए समग्र विषयों के विवेचन का प्रयास नहीं किया। इस दष्टि से अपने ढंग का यह पहला प्रयास माना जायगा। अतः इस महत्त्वपूर्ण कार्य से यह आशा की जाती है कि इससे पूर्व के प्रकाशनों को न्यूनताओं का ज्ञान भी संभव हो सकेगा। इस पुस्तक में जो त्रुटि, दुस्हता और अदक्षता प्रतीत होती हैं, उनके लिए लेखनकाल की परिस्थिति एवं अन्य कारण अधिक उत्तरदायी हैं। इन बातों की ओर ध्यान दिलाना इसलिए आवश्यक है कि इस स्वीकारोक्ति से मित्रों को मेरी कठिनाइयों का ज्ञान हो जाने से उनका भ्रम दूर होगा और वे इस कार्य की प्रतिकूल एवं कटु आलोचना नहीं करेंगे। अन्यथा, आलोचकों का यह सहज अधिकार है कि प्रतिपाद विषय में की गयी अशुद्धियों और संकीर्णताओं की कटु से कटु आलोचना करें। कुछ पाठक यह भापत्ति
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