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याज्ञवल्क्यस्मति
ठहरते हैं। निम्न बातों में भिन्नताएँ पायी जाती हैं-मनु ब्राह्मण को शूद्रकन्या से विवाह करने का आदेश कर देते हैं (३.१३), किन्तु याज्ञवल्क्य नहीं (१.५९)। मनु ने नियोग का वर्णन करके उसकी भर्त्सना की है (९.५९-६८), किन्तु याज्ञवल्क्य ने ऐसा नहीं किया है (१.६८-६९)। मनु ने १८ व्यवहारपदों के नाम लिये हैं, किन्तु याज्ञवल्क्य ने ऐसा न करके केवल व्यवहारपद की परिभाषा की है और एक अन्य प्रकरण में व्यवहार पर विशिष्ट श्लोक जोड़ दिये हैं। मनु पुत्रहीन पुरुष की विधवा पत्नी के दायभाग पर मौन-से हैं, किन्तु इस विषय में याज्ञवल्क्य बिल्कुल स्पष्ट हैं, उन्होंने विधवा को सर्वोपरि स्थान पर रखा है। मनु ने जुए की भर्त्सना की है, किन्तु याज्ञवल्क्य ने उसे राज्य-नियन्त्रण में रखकर कर का एक उपादान बना डाला है (२.२००-२०३)। इसी प्रगर कई बातों में याज्ञवल्क्य मनु से बहुत आगे हैं।
याज्ञवल्क्यस्मृति ने मानगृह्यसूत्र (२.१४) से विनायक-शान्ति की बातें ले ली हैं, किन्तु विनायक की अन्य उपाधियाँ या नाम नहीं लिये हैं, यथा--मित, सम्मित, शालकटंकट एवं कूष्माण्डराजपुत्र।
याज्ञवल्क्यस्मृति का शुक्ल यजर्वेद एवं उसके साहित्य से गहरा सम्बन्ध है। इस स्मृति के बहुत-से उद्धृत मन्त्र ऋग्वेद एवं वाजसनेयी संहिता दोनों में पाये जाते हैं; उनमें कुछ तो केवल वाजसनेयी संहिता के हैं। स्मृति के कुछ अंश बृहदारण्यकोपनिषद् के केवल अन्वय मात्र हैं। पारस्करगह्यसूत्र से भी इस स्मृति का बहुत मेल बैठता है। कात्यायन के श्राद्धकल्प से भी इस स्मृति की बातें कुछ मिलती हैं, कौटिल्य के अर्थदास्त्र से भी बहुत साम्य है।
याज्ञवल्क्य के काल-निर्णय में ९वीं शताब्दी के उपरान्त का साक्ष्य नहीं लेना है, क्योंकि उस शताब्दी में इसके व्याख्याकार विश्वरूप हुए थ। याज्ञवल्क्य विश्वरूप से कुछ शताब्दी पहले के थे। विश्वरूप के पूर्व भी याज्ञवल्क्य के कई टीकाकार थे, ऐसा विश्वरूप की टीका से ज्ञात होता है। नीलकण्ठ ने अपने प्रायश्चित्तमयूख में कहा है कि शंकराचार्य ने अपने ब्रह्म सूत्र के भाष्य में याज्ञवल्क्य (३.२२६) की बातें कही हैं। बहुत-से सूत्रों के आधार पर याज्ञवल्क्यस्मृति को हम ई० पू० पहली शताब्दी तथा ईसा के बाद तीसरी शताब्दी के बीच में कहीं रख सकते हैं।
याज्ञवल्क्यस्मृति के अतिरिक्त याज्ञवल्क्य नाम वाली तीन अन्य स्मृतियां हैं; वृद्धयाज्ञवल्क्य, योगयाज्ञवल्क्य एवं बृहद्-याज्ञवल्क्य। ये तीनों तुलनात्मक दृष्टि से याज्ञवल्क्यस्मृति से बहुत प्राचीन हैं। विश्वरूप ने वृद्ध-याज्ञवल्क्य को उद्धृत किया है। मिताक्षरा एवं अपरार्क ने भी कई बार उसे उद्धृत किया है। दायभाग के अनुसार जितेन्द्रिय ने बृहद्याज्ञवल्क्य की चर्चा की है। मिताक्षरा ने भी इसका उल्लेख किया है। याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि वे योगशास्त्र के प्रणेता थे। योग-याज्ञवल्क्य ८०० ई० में था। वाचस्पति मिश्र ने अपने योगसूत्रभाष्य में योग-याज्ञवल्क्य के एक-आधे श्लोक को लिया है। वाचस्पति ने अपना न्यायसूचीनिबन्ध सन् ८४१-४२ ई० में लिखा। अपरार्क ने भी योग-याज्ञवल्क्य से उद्धरण लिये हैं। पराशरमाधवीय ने भी इसकी चर्चा की है। कुल्लूक ने मनु की व्याख्या करते हुए (३.१) योग-याज्ञवल्क्य का उद्धरण दिया है। डेकन कालेज के संग्रह में योग-याज्ञवल्क्य की हस्तलिखित प्रतियाँ हैं जिनमें १२ अध्याय एवं ४९५ श्लोक हैं। कहा जाता है कि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मा से योगशास्त्र का अध्ययन किया और उसे अपनी पत्नी गार्गी को सिखाया। सम्पूर्ण पुस्तक में योग के ८ अंगों, उनके विभागों एवं उपविभागों का वर्णन है। इसमें एक-दो श्लोकों को छोड़कर अन्य उपर्युक्त उद्धरण नहीं पाये जाते, और वह भी बौधायनधर्मसूत्र में पाया जाता है। दूसरा श्लोक भगवद्गीता में पाया जाता है। डेकन कालेज संग्रह में एक अन्य प्रति है जिसका नाम है बृहद्-योगि-याज्ञवल्क्य स्मृति जो १२ अध्यायों एवं ९३० श्लोकों में है। योग-याज्ञवल्क्य एवं बृहद्-याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थ नहीं हैं।
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