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कण्व एवं काय, कश्यप एवं काश्यप, भाग्य
१८. कण्व एवं काण्व आपस्तम्बधर्मसूत्र से पता चलता है कि कण्व एवं काव धर्मशास्त्रकार थे। एक, कुणिक, कुन्स, कौत्स, हारीत, पुष्करसादि के साथ. कण्व एवं काण्व का मत भी घोषित किया गया है। आह्निक एवं श्राद्ध पर बातें करते हुए स्मृतिचन्द्रिकाकारं ने कण्व के मत को कई बार उद्धत किया है। इसी प्रकार गौतमधर्मसूत्र की व्याख्या करते हुए हरदत्त ने भी किया है। आचारमयूख एवं श्राद्धमयूख में भी कण्व का नाम आया है। याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा व्याख्या में किसी ग्राम या नगर में संन्यासी के रुकने के विषय में काण्व का एक श्लोक उद्धृत हुआ है (याज्ञ० पर, ३.५८)।
१९. कश्यप एवं काश्यप बौ० धर्मसूत्र (१.११.२०) में कश्यप का मत उद्धृत है। किन्तु तत्सबंधी श्लोक स्मृतिचन्द्रिका में कात्यायन का कहा गया है (१, पृ० ८७)। महाभारत के वनपर्व में काश्यप की सहिष्णुता की गाथाएँ उद्धृत हैं (२९. ३५-४०)। कश्यप और काश्यप दो स्वतन्त्र धर्मशास्त्रकार हैं कि नहीं, इसका उत्तर देना कठिन है। सम्भवतः दोनों एक ही हैं। काश्यप के धर्मसूत्र में सभी परम्परागत बातें आयी हैं, यथा--प्रति दिन के कर्तव्य, श्राद्ध, अशौच, प्रायश्चित्त आदि। विश्वरूप तथा उनके आगे के सभी लोगों ने काश्यप-धर्मसूत्र को प्रमाणरूप में उद्धत किया है। विश्वरूप में काश्यप का गद्यांश भी उद्धत है (याज्ञ० पर, ३.२६२)। मिताक्षरा ने भी गद्यांश उद्धृत किया है (याज्ञवल्क्य पर, ३.२३)। किन्तु स्मृतिचन्द्रिका के उद्धरण पद्य में हैं। हरदत्त ने गद्य का सूत्र उद्धत किया है (२२.१८)। हारलता ने अशौच पर कश्यप का सूत्र उद्धृत किया है। अपरार्क ने कश्यप एवं काश्यप दोनों के नाम से सूत्र उद्धत किये हैं (देखिए, याज्ञ० १.६४,३ . २६५, १.२२२-२५, ३.२५१, २८८, २९०, २९२)। डेकन कालेज के संग्रह में दो प्रतियाँ हैं जिनमें काश्यप स्मृति गद्य में है। इस स्मृति के कुछ अंश भाष्यकारों द्वारा उद्धत पाये जाते हैं। इस स्मृति में स्वयं काश्यप प्रमाण-स्वरूप उद्धृत हैं। याज्ञवल्क्य ने काश्यप को धर्मशास्त्र-प्रयोजक नहीं माना है, किन्तु पराशर ने "काश्यपधर्माः" की चर्चा की है। स्मृतिचन्द्रिका एवं सरस्वतीविलास ने १८ उपस्मृतियों की चर्चा की है, जिनमें काश्यप भी सम्मिलित है।
२०. गार्ग्य वृद्ध याज्ञवल्क्य के एक श्लोक को उद्धृत करते हुए विश्वरूप ने (याज्ञ० पर, १।४-५) गार्य को धर्मवक्ताओं में गिना है। उन्होंने गार्ग्य एवं वृद्धगार्ग्य के सूत्रों को उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि गार्यधर्मसूत्र नामक एक ग्रन्थ था। मिताक्षरा, अपरार्क एवं स्मृतिचन्द्रिका ने आह्निक, श्राद्ध एवं प्रायश्चित्त-सम्बन्धी बातों पर गार्ग्य के कई एक श्लोक उद्धृत किये हैं। पराशर ने भी गार्य को धर्मशास्त्रकार माना है। धर्म-विषयक बातों को अपराक ने श्लोकों में भी उद्धृत किया है। मार्गी संहिता के ज्योतिष-सम्बन्धी उद्धरण मिले हैं। स्मृतिचन्द्रिका में ज्योतिर्गार्य एवं बृहद्गार्य से उद्धरण लिये गये हैं। नित्याचारप्रदीप ने गर्ग एवं गार्ग्य को अलग-अलग स्मृतिकार घोषित किया है।
८४. कीता द्रव्येन या नारी साम पली विधीयते। तान न सा पिश्ये दासी तो कश्यपोजवीत् ।।
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