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धर्मशास्त्र का इतिहास
द्रौपदी सोयी थी (८९१ २-३ ) । अश्व की वपा आहुति के रूप में दी गयी थी, किन्तु आपस्तम्ब (२०११८/११) ने स्पष्ट लिखा है कि अश्वमेघ में वपा का निषेध है। बहुत-से लोगों को भोजन, सुरा आदि दिये जाने का प्रबन्ध था । दरिद्रों एवं आश्रयहीनों को भोजन दिया गया था (८८/२३, ८९ । ३९-४३) । ब्राह्मणों को करोड़ों निष्क दिये गये थे। व्यास को सम्पूर्ण पृथिवी दान में मिली थी, जिसे उन्होंने अपने तथा ब्राह्मणों को स्वर्ण देने के बदले में लौटा दिया। पुत्रोत्पत्ति की लालसा से दशरथ ने भी अश्वमेघ यज्ञ किया था। रामायण में इसका विशद वर्णन पाया जाता है ( बालकाण्ड, १३।१४ ) ।
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ऐतिहासिक कृतियों में भी अश्वमेघ का उल्लेख हुआ है। नन्दिवर्म पल्लवमल्ल के सेनापति उदयचन्द्र ने निषादराज पृथिवीश को हराया, जिसने उसके अश्वमेघ के अश्व की स्थान-स्थान पर जाते समय रक्षा की थी (इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ८, पृ० २७३ ) । यह घटना नवीं शताब्दी की है। चालुक्यराज पुलकेशी ने भी अश्वमेध किया था (एपिग्राफ़िया कर्नाटिका, जिल्द १०, कोलर संख्या ६३) । आन्ध्र के राजा ने राजसूय, दो अश्वमेष, गर्मत्रिरात्र, गयामन एवं अंगिरसामयन सम्पादित किये थे ( आर्यालाजिकल सर्वे आव वेस्टर्न इण्डिया, जिल्द ५, १०६०-६१, नामा घाट अभिलेख ) ।' १८वीं शताब्दी के प्रथम भाग में आमेर (जयपुर) के राजा जयसिंह ने अश्वमेघ यज्ञ किया था (पूना ओरियण्टलिस्ट, जिल्द २, पृ० १६६-८० तथा कृष्ण-कवि का ईश्वरविलास काव्य, डकन कालेज कलेक्शन, हस्तलिपि संख्या २७३, सन् १८८४-८६ ) ।
सत्र
यज्ञ-सम्बन्धी दीर्घ कालों की अवधि वाले कृत्य को सत्र कहा जाता है, जिसकी सीमा १२ दिनों से लेकर एक वर्ष या इससे अधिक होती है। सत्रों की प्रकृति द्वादशाह की होती है (आश्व० ९।१।७) । सत्रों को सुविधानुसार रात्रिसत्रों तथा सांवत्सरिक सत्रों (एक वर्ष या अधिक समय तक चलने वालों) में विभाजित किया जा सकता है। आश्वलायन ( ९/११८ - ११६ ११६ ) एवं कात्यायन (२४।१-२ ) ने त्रयोदशरात्र आदि से लेकर शतरात्र तक के बहुत-से रात्रिसत्रों का उल्लेख किया है । इन दोनों सूत्रों में सत्रों के प्रमुख सिद्धान्तों तथा द्वादशाह से उनके उद्गम का वर्णन मिलता है। यदि एक ही दिन और जोड़ा जाय तो वह महावत हो जाता है, और यह एक दिन का जोड़ना उदयनीय नामक अन्तिम दिन के पूर्व ही होता है। यदि दो या अधिक दिन जोड़े जायें तो ऐसा दशरात्र के पूर्व ही किया जाता है (ऐसा करना प्रायणीय दिन के उपरान्त ही अच्छा माना जाता है और तब द्वादशाह का यह मध्य अंश हो जाता है) । बहुत दिनों तक चलने वाले रात्रिसत्रों के विषय में धडह जोड़े जाते हैं ( कात्या० २४।१।५-७, आश्व० ९२११८-१४ ) । एक ही सत्र में अधिक से अधिक एक ही बार दशरात्र दोहराया जा सकता है ( कात्या० २४ | ३ | ३४) । स्थानाभाव से हम रात्रिसत्रों का वर्णन नहीं करेंगे। सांवत्सरिक सत्रों का आधार है गवामयन ( गायों का पथ अर्थात् सूर्य की किरणें या दिन ) । इस विषय में देखिए आश्वलायन (९।७।१), जैमिनि (८११८) की टीका तथा कात्यायन ( २४/४/२ ) । सूत्र-ग्रन्थों में एक वर्ष या इससे अधिक अवधि वाले कतिपय सत्रों का उल्लेख हुआ है, यथा-आदित्यानामयन ( आश्व० १२॥ ११), अंगिरसामयन, कुण्डपायिनामयन ( आश्व० १२/४ | १ ), सर्पाणामयन, त्रैवार्षिक (तीन वर्षों वाला), द्वादश
६, अश्वमेष के विषय में देखिए तैत्तिरीय संहिता (४२६२६-९, ४७११५, ५११-६, ७११-५); तैतिरीय ब्राह्मण (३३८-९); शतपथ ब्राह्मण (१३।१-५); आप० (२०११-२३); सत्यावाढ (१५); मात्व० ( १०1६-१० ) ; कात्या० ( २० ); लाट्या० (९/९-११); बौधा० (१५) ।
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