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________________ अध्याय ३५ सौत्रामणी, अश्वमेध एवं अन्य यज्ञ सौत्रामणी यह यज्ञ हविर्गों के सात प्रकारों में एक है (गोतम ८१२०, लाट्या० ५।४।२३)। यह सोमया नहीं है, यह एक इष्टि एवं पशु-यज्ञ का मिश्रण है (शत० १२।७।२।१०)। इसमें सुरा की आहुति दी जाती है। आजकल सुरा के स्थान पर दूध दिया जाता है। इसके दो रूप हैं; (१) कोकिली एवं (२) चरक सौचामनी (या साधारण सौत्रामणी)। कोकिली कृत्य का सम्पादन स्वतन्त्र रूप से होता है, किन्तु सामान्य सौत्रामणी कृत्य राजसूय यज्ञ के एक मास उपरान्त तथा अग्निचयन के अन्त में किया जाता है। लाट्यायन (५।४।२१) के मत से केवल कोकिली में साममन्त्रों का वाचन होता है, अन्य प्रकारों में नहीं। कात्यायन (१९।५।१) के मत से ब्रह्मा पुरोहित बृहती ध्वनि में इन्द्र के लिए साम का गायन करता है। आपस्तम्ब (१९।१२२) का कहना है कि सामान्य सौत्रामणी को विधि निरूढ-पशुजन्य के समान होती है और यही वात कोकिली के विषय में भी लागू होती है। वरुणप्रघास के समान ही इसमें दो अग्नियाँ होती हैं, किन्तु दक्षिण अग्नि वेदी पर नहीं रखी जाती (कात्या० १९।२।१ एवं ५।४।१२) । शतपय ब्राह्मण (१२। ७।३७) आदि के मत से दो वेदियां होती हैं जिनके पीछे दो उच्च स्थलों का निर्माण होता है, जिनमें एक पर दूध की प्यालियां तथा दूसरे पर सुराकी प्यालियां रखी जाती हैं। इस कृत्य में चार दिन लग जाते हैं। प्रथम तीन दिनों तक भांति-भांति के पदार्थों से सुरा बनायी जाती है और अन्तिम दिनों में दूध तथा सुरा की तीन-तीन प्यालियाँ अश्विनी, सरस्वती एवं इन्द्र को समर्पित की जाती हैं तथा इन्हीं तीन देयों के लिए पशुओं की बलि भी दी जाती है, यथा अश्विनी, के लिए भूरे रंग का बकरा, सरस्वती के लिए भेड़ (मेष) तथा सुत्रामा इन्द्र के लिए एक वैल (शांखायन० १५।१५।१४, आश्वलायन० ३।९।२)। शतपथब्राह्मण (५।५।४ एवं १२।७।२), कात्या० (१५।९।२८-३० एवं १९।१-२) आदि में सुरा-निर्माण के विषय में विशद वर्णन मिलता है जिसे हम यहाँ स्थानाभाव मे नहीं दे रहे हैं। सौत्रामणी में तीनों पशु बकरे भी हो सकते हैं। कुछ परिस्थितियों में बृहस्पति को भी एक पशु दिया जाता है (आप० १९।२।१-२)। यह कृत्य राजसूय के अन्त में, या उनके लिए जो चयन कृत्य का सम्पादन करते हैं, या उनके लिए जो अत्यधिक सोम पीने के कारण बीमार पड़ जाते हैं, जिनके शरीर के छिद्रों से (मुख से नहीं) सोमरस निकल रहा हो, किया जाता है। स्वतन्त्र सौत्रामणी अर्थात् कौकिली उन लोगों द्वारा सम्पादित होता है, जो सम्पत्ति के इच्छुक हैं या जिनका राज्य छिन गया है या जो पशु-धन चाहते हैं (कात्या. १९।११२-४)। इस कृत्य के प्रारम्भ एवं अन्त में अदिति को चरु दिया जाता है। १. 'सौगामणों' शब्द की उत्पत्ति 'सुत्रामन्' (एक अच्छा रक्षक) शब्द से हुई है, जो इन की एक उपाधि है (रग्वेद १०॥१३॥६-७) । शतपनाहन (५।५।४।१२) ने इसका अर्थ यो लगाया है-"वह जो (अश्विनौ हारा) भली प्रकार बचा लिया गया है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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