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________________ बोलवश (राजन) ५६३ गाता के प्रथम सहायक) में प्रत्येक को १६,००० गायें तथा आगे के चार (अच्छा वाक, नेष्टा, आग्नीध्र एवं प्रतिहर्ता ) में प्रत्येक को ८,००० एवं अन्तिम चार (ग्रावस्तुत्, उन्नेता, पोता एवं सुब्रह्मण्य) में प्रत्येक को ४००० गायें दी जाती हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर २,४०,००० गायें दी जाती हैं। दशपेय कृत्य के उपरान्त १००० गायें दी जाती हैं। और १६ पुरोहितों को विशिष्ट दक्षिणा दी जाती है (आश्व० ९१४१७-२०, आप० १८/३१।६-७, कात्या० १५। ८।२३-२७, लाट्या० ९/२/१५ ), यथा-सोने की एक सिकड़ी, एक घोड़ा, बछड़े के साथ एक दुधारू गाय, एक बकरी, सोने के दो कर्णफूल, चाँदी के दो कर्णफूल, पाँच वर्ष वाली बारह गाभिन गायें, एक बन्ध्या गाय, सोने का एक गोलाकार आभूषण ( रुक्म), एक बैल, रुई का एक परिधान, सन (शण) का एक मोटा वस्त्र, जौ से मरी एवं एक बैल युक्त गाड़ी, एक साँड़, एक बछिया एवं तीन वर्षीय बैल क्रम से उद्गाता एवं उसके तीन सहायकों (प्रस्तोता, प्रतिहर्ता एवं सुब्रह्मण्य), अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, ब्रह्मा, मैत्रावरुण, होता, ब्राह्मणाच्छंसी, पोता, नेष्टा, अच्छावाक, आग्नीध्र, उन्नेता एवं ग्रावस्तुत् को दिये जाते हैं। दशपेय कृत्य में अवभृथ स्नान के उपरान्त साल भर तक राजा को कुछ व्रत ( देवव्रत, लाट्या ० ९।२।१७ ) करने पड़ते हैं, यथा- वह नित्य स्नान के लिए जल में डुबकी नहीं लगा सकता, केवल शरीर को रगड़ कर स्नान करे, वह सदैव दाँतों को स्वच्छ रखे, नाखून कटाये, बाल नहीं कटाये, केवल दाढ़ी एवं मूंछ स्वच्छ रखे, यज्ञ भूमि में बाघ के चमड़े पर शयन करे, प्रति दिन समिधा डाले, उसकी प्रजा (ब्राह्मणों को छोड़कर) साल भर तक केश नहीं कटाये, इसी प्रकार उसके घोड़ों के बाल भी साल भर तक नहीं काटे जायें। साल भर तक राजा बिना पदत्राण के पृथिवी पर नहीं चले । कुछ अन्य छोटे-मोटे कृत्य भी होते हैं, यथा पंचबलि एवं बारह प्रयुज नामक आहुतियाँ, जो क्रम से चारों दिशाओं एवं बीच में तथा मासों के बीच में या प्रति दो दिनों के उपरान्त दी जाती हैं ( कात्या० १५।९।१-३, १५ ९।११-१४, आप ० १८।२२।५-७ ) । दशपेय कृत्य के एक वर्ष उपरान्त केशवपनीय नामक कृत्य होता है, जिसकी विधि अतिरात्र यज्ञ के समान होती है (आर० ९|३|२४ ) और जिसमें साल भर के बाल काट डाले जाते हैं। इसके उपरान्त व्युष्टि, द्विरात्र (द्विरात्र का सम्पादन समृद्धि के लिए होता है) नामक दो कृत्य किये जाते हैं। व्युष्टिप्रथमतः एक प्रकार का अग्नि- टोम ही था और द्विरात्र एक प्रकार का अतिरात्र । केशवपनीय, व्युष्टि एवं द्विरात्र के सम्पादन - कालों के विषय में मत-मतान्तर हैं। व्युष्टि- द्विरात्र के एक मास उपरान्त क्षत्र-वृति नामक कृत्य किया जाता है। इस कृत्य का सम्बन्ध शक्ति स्थिति से है । यह अग्निष्टोम की विधि के अनुसार किया जाता है। शांखायनश्रौतसूत्र ( १५ १६।१-११) में आया है कि इस कृत्य के न करने से कुरुओं को प्रत्येक युद्ध में हार खानी पड़ी। एक अन्य कृत्य था धतवी, जो उदवसानीया के स्थान पर किया जाता था (शतपथ ब्राह्मण ५।५।६-९), जिसमें चावल एवं जौ की मिश्रित रोटी को आहुति दी जाती थी। इस प्रकार राजसूय का अन्त होता था, किन्तु इसकी समाप्ति के एक मास उपरान्त सौत्रामणी नामक इष्टि की जाती थी। सोत्रामणी का वर्णन आगे के अध्याय में किया जायगा । राजसूय यज्ञ की विस्तृत जानकारी के लिए देखिए तैत्तिरीय संहिता (१८१-१७), तैत्तिरीय ब्राह्मण ( १ | ४१९-१०), शत० (५।२।३-५ ), ऐत० (७११३ एवं ८), ताण्ड्य ० ( १८/८-११), आप० (१८१८-२२), कात्या ० ( १५/१- ९ ), आश्व ० ( ९/३-४ ), लाट्या ० ( ९1१-३), शांखा० ( १५/१२), बीघा ० ( १२ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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