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________________ ५३८ धर्मशास्त्र का इतिहास योजना पायी जाती है। 'साकमेध' का अर्थ है एक ही साथ या मानो एक ही समय प्रज्वलित करना (साकम्, एध)।' इसका यह नाम सम्भवतः इसलिए पड़ा है कि इसमें प्रथम आहुति आठ कपालों वाली रोटी (पुरोडाश=परोठा=रोट रोटी) की होती है, जो सूर्योदय के साथ अग्नि अनीकवान् को दी जाती है। वरुणप्रघासों के चार मास उपरान्त कार्तिक या मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को यह कृत्य किया जाता है। इसमें कुल दो दिन लग जाते हैं। पूर्णिमा के एक दिन पूर्व तीन सवनों (प्रातः, मध्याह्न एवं सायं) में तीन इष्टियाँ तीन देवों, यथा-अनीकवान् अग्नि, सन्तपन मरुतों एवं गृहमेधी मरुतों के लिए की जाती हैं। प्रातः आठ कपालों वाला पुरोडाश अग्नि अनीकवान् को, मध्याह्न काल में चरु (पकाये हुए चावल अर्थात् भात की आहुति) सन्तपनों को तथा सायं यजमान की सभी गायों के दूध में पका हुआ चरु गृहमेधी मरुतों को दिया जाता है (आप० ८।९।८)। अन्तिम चरु के विषय में आपस्तम्ब (८।१०।८ एवं ८।११।८-१०) तथा कात्यायन (५।६।२९-३०) ने लिखा है कि यदि दूध में अधिक चावल पकाया गया हो तो पुरोहित, पुत्र एवं पौत्र उसका भरपेट भोजन कर उस रात्रि एक ही कोठरी में सो जाते हैं और दरिद्रता एवं भूख की चर्चा नहीं करते। दूसरे दिन प्रातःकाल पानी में पके हुए चावलों से अग्निहोत्र किया जाता है। साकमेध के प्रमुख दिन यजमान पिछले दिन गृहमेघी मरुतों के लिए पकाये गये भात की थाली की सतह से एक दर्वी (करछुल) भात निकालकर अग्निहोत्र के पूर्व या उपरान्त होम करता है। होम के समय मन्त्रपाठ भी होता है (वाजसनेयी संहिता ३।४९, तैत्तिरीय संहिता ११८।४।१)। इसके उपरान्त अध्वर्यु यजमान से एक बैल लाने को कहता है और उसे गर्जन करने को उद्वेलित करता है। बैल के निनाद करने पर दर्वी का भात मन्त्र (वाजसनेयी संहिता ३।५०, तैत्तिरीय संहिता १।८।४।१) के साथ अग्नि में डाला जाता है। यदि बैल न बोल सके तो पुरोहित के कहने पर होम कर दिया जाता है। आश्वलायन (२।१८। ११-१२) के मत से बैल के न बोलने पर धन-गर्जन पर या आग्नीध्र (एक पुरोहित) के गर्जन करने पर (आग्नीध्र को ब्रह्मपुत्र अर्थात् ब्रह्मा का पुत्र कहा जाता है) होम कर दिया जाता है। बैल को दान रूप में अध्वर्यु ग्रहण करता है। इसके उपरान्त सात कपालों पर पका हुआ एक पुरोडाश क्रीडी मरुतों के लिए तथा एक चरु अदिति के लिए आहुति के रूप में दिया जाता है। इस कृत्य के उपरान्त महाहवि की बारी आती है, जिसमें आठ देवों को आठ आहुतियाँ दी जाती हैं, जिनमें प हतियाँ तो सभी चातुर्मास्यों वाली होती हैं, छठी १२ कपालों वाले पूरोडाशकी इन्द्र एवं अग्नि के लिए, सातवी महेन्द्र (आश्व० २।१८।१८ के मत से इन्द्र या वृत्रहा इन्द्र या महेन्द्र) के लिए चर के रूप में तथा आठवीं आहुति एक कपाल वाले पुरोडाश के रूप में विश्वकर्मा के लिए होती है। आपस्तम्ब के मत से आठवी आहुति सहः, सहस्य, तपः एवं तपस्य नामक चारों मासों (मार्गशीर्ष, पौष, माघ एवं फाल्गुन) के नामों को उच्चारित कर दी जाती है। नहाहवि की दक्षिणा है एक बैल (आप० के मत से एक गाय)। ___महाहवि के उपरान्त पितृयज्ञ की बारी आती है, जिसे महापितृयज्ञ कहा जाता है। दक्षिणाग्नि के दक्षिण चार कोण वाली (चार दिशाओं में फैली भुजाओं वाली) वेदी का निर्माण होता है। इस वेदी की लम्बाई एवं चौड़ाई यजमान की लम्बाई के बराबर होती है (आप० ८।१३।२)। यजमान दक्षिणाग्नि से अग्नि लाकर इस नयी वेदी के मध्य में रखता है जहाँ आहवनीयाग्नि में दी जाने वाली आहुतियां डाली जाती हैं। महापितृयज्ञ में पत्नी कुछ नहीं करती। छ: कपालों वाली रोटी इस यज्ञ में सोमवान् पितरों या पितृमान् सोम को, धाना (भूने हुए जौ) बहिषद् पितरों को तथा मन्थ' ३. अथ पौर्णमास्या उपवसथेऽग्नयेऽनीकवते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपति सार्क सूर्येणोद्यता। बौ० ५।९; आप० ८।९।२ एवं तै० सं० ११८४६। ४. वह गाय जिसका बछड़ा न हो किन्तु दूसरी गाय के बछड़े से दूध दे, उसे 'निवान्या' गाय कहा जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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