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________________ कौटिल्य का अर्थशास्त्र ३१ के धर्मसूत्रों की भाषा से इसकी शैली मिलती-जुलती है, किन्तु आपस्तम्ब की भाँति इसकी भाषा प्राचीन नहीं है । भाषा पाणिनि के व्याकरण-नियमों के अनुसार है, यद्यपि दो-एक स्थान पर भिन्नता भी है। पूरा ग्रन्थ एक व्यक्ति की कृति है, अतः विषयों के अनुक्रम एवं व्यवस्था में पर्याप्त पूर्वविवेचन झलकता है । यह ग्रन्थ प्राचीन भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन पर इतना मूल्यवान् प्रकाश डालता है, और इतने विषयों का प्रतिपादन इसमें हुआ है कि थोड़े में बहुत कुछ कह देना सम्भव नहीं है। पन्द्रहों अधिकरणों की विषय-सूची इस प्रकार है -- ( १ ) राजानुशासन, राजा द्वारा शास्त्राध्ययन, आन्वीक्षिकी एवं राजनीति का स्थान, मन्त्रियों एवं पुरोहित के गुण तथा उनके लिए प्रलोभन, गुप्तचर संस्था, सभा बैठक, राजदूत, राजकुमार-रक्षण, अन्तःपुर के लिए व्यवस्था, राजा की सुरक्षा; (२) राज्य - विभाग के पर्यवेक्षकों के विषय में, ग्राम-निर्माण, चरागाह, वन, दुर्ग, सन्निधाता के कर्तव्य, दुर्गों, भूमि, खानों, वनों मार्गों के करों के अधिकारी, आय-व्ययनिरीक्षक का कार्यालय, जनता के धन का गवन, राज्यानुशासन, राज्यकोष एवं खानों के लिए बहुमूल्य प्रस्तरों (रत्नों) की परीक्षा, सिक्कों का अध्यक्ष, व्यवसाय, वनों, अस्त्र-शस्त्रों, तौल-बटखरों, चुंगी, कपड़ा बुनने, मद्यशाला, राजधानी एवं नगरों के अध्यक्ष ; (३) न्याय - शासन, विधि-नियम, विवाह - प्रकार, विवाहित जोड़े के कर्तव्य, स्त्रीधन, बारहों प्रकार के पुत्र, व्यवहार की अन्य संज्ञाएँ; (४) कंटक - निष्कासन, शिल्पकारों एवं व्यापारियों की रक्षा, राष्ट्रीय विपत्तियों, यथा अग्नि, बाढ़, आधि-व्याधि, अकाल, राक्षस, व्याघ्र, सर्प आदि के लिए दवाएँ या उपचार, दुराचारियों को दबाना, कौमार अपराध का पता चलाना, सन्देह पर अपराधियों को बन्दी बनाना, आकस्मिक एवं घात के कारण मृत्यु, दोषांगीकार कराने के लिए अति देना, सभी प्रकार के राजकीय विभागों की रक्षा, अंग-भंग करने के स्थान पर जुरमाने, बिना पीड़ा अथवा पीड़ा के साथ मृत्यु - दण्ड, रमणियों के साथ समागम, विविध प्रकार के दोषों के लिए अर्थदण्ड (५) दरबारियों का आचरण, राजद्रोह के लिए दण्ड, विशेषावसर ( आकस्मिकता) पर राज्यकोष को सम्पूरित करना, राज्यकर्मचारियों के वेतन, दरबारियों की योग्यताएँ, राज्यशक्ति की संस्थापना; ( ६ ) मण्डलरचना, सार्वभौम सत्ता के सात तत्त्व, राजा के शील-गुण, शान्ति तथा सम्पत्ति के लिए कठिन कार्य, षड्विध राजनीति, तीन प्रकार की शक्ति; ( ७ ) राज्यों के वृत्त ( मण्डल) में ही नीति की छ: धाराएँ प्रयुक्त होती हैं, सन्धि विग्रह, यान, आसन, शरण गहना एवं द्वैधीभाव नामक छः गुण, सेना के कम होने एवं आज्ञोल्लंघन के कारण, राज्यों का मिलान, मित्र, सोना या भूमि की प्राप्ति के लिए सन्धि, पृष्ठभाग में शत्रु, परिसमाप्त शक्ति का पुनर्गठन, तटस्थ राजा एवं राज- मण्डल (८) सार्वभौम सत्ता के तत्त्वों के व्यसनों के विषय में, राजा एवं राज्य के कष्ट (बाधा), मनुष्यों एवं सेना के कष्ट ; ( ९ ) आक्रमणकारी के कार्य, आक्रमण का उचित समय, सेना में रँगरूटों की भरती, प्रसाधन, अन्तः एवं बाह्य कष्ट ( बाधा ), असन्तोष, विश्वासघाती, शत्रु एवं उनके मित्र; (१०) युद्ध के बारे में, सेना का पड़ाव डालना, सेना का अभियान, समरांगण, पदाति ( पैदल सेना ), अश्वसेना, हस्तिसेना आदि के कार्य, विविध रूपों में युद्ध के लिए टुकड़ियों को सजाना; (११) नगरपालिकाओं एवं व्यवसाय - निगमों के बारे में; ( १२ ) शक्तिशाली शत्रु के बारे में, दूत भेजना, कूट- प्रबन्ध योजना, अस्त्र-शस्त्रसज्जित गुप्तचर, अग्नि, विष एवं भाण्डार तथा अन्न कोठार का नाश, युक्तियों से शत्रु को पकड़ना, अन्तिम विजय; (१३) दुर्ग को जीतना, फूट उत्पन्न करना, युक्ति से ( युद्धकौशल आदि से ) राजा को आकृष्ट करना, घेरे में गुप्तचर, विजित राज्य में शान्ति स्थापना; (१४) गुप्त साधन, शत्रु की हत्या के लिए उपाय, भ्रमात्मक रूप-स्वरूप प्रकट करना; औषधियाँ एवं मन्त्र - प्रयोग तथा ( १५ ) इस कृति का विभाजन एवं उसका निदर्शन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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