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________________ अग्न्याधेय ५१३ होता है। अन्य याज्ञिक पात्र विककत के बने होते हैं। किन्तु वे पात्र, जिनका सम्बन्ध होम से प्रत्यक्ष रूप में नहीं होता वरण वृक्ष से बने होते हैं । 'स्पय' नामक तलवार खदिर की बनी होती है। मुख्य-मुख्य यज्ञपात्र या यज्ञायुष नीचे पाद-, टिप्पणी में दिये गये हैं। सभी प्रकार के संस्कार (यथा अविश्रयण, पर्यग्निकरण, किसी यज्ञपात्र का गर्म करना आदि ) गार्हपत्य अग्नि ( जब तक कि स्पष्ट रूप से कुछ कहा न जाय ) में किये जाते हैं, किन्तु हत्रि का पकाना या तो गार्हपत्य अग्नि में या आहवनीय में अपनी शाखा या सूत्र के अनुसार होता है। जब किसी विशिष्ट वस्तु का नाम न लिया गया हो तो होम घृत से किया जाता है। इसी प्रकार जब कोई दूसरी बात न कही जाय सभी प्रकार के होम आहवनीय में किये जाते हैं, और जुहू का प्रयोग भी इसी प्रकार किया जाता है ( कात्या० ११८।४४-४५) । जो कृत्य ऋग्वेद के मन्त्रों से किये जाते हैं उनमें होता रहता है, इसी प्रकार यजुर्वेद के मन्त्रों के साथ अध्वर्यु, सामवेद के मन्त्रों के साथ उद्गाता तथा ब्रह्मा सभी वेदों के मन्त्रों के साथ रहता है ( ऐतरेय ब्राह्मण २५/८ ) । पुरोहित का कार्य केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं। ( जैमिनि १२।४।४२-४७) । याज्ञिक की पत्नी गार्हपत्य अग्नि के दक्षिण-पश्चिम दिशा में उत्तर-पूर्व की ओर मुख करके बैठती है ( कात्या० २।७।१ ) । किसी इष्टि या कृत्य के आरम्भ में पाँच प्रकार के भू-संस्कार आहवनीय के खर ( मृत्तिकासंचय या वेदी) तथा दक्षिणाग्नि पर किये जाते हैं और वे ये हैं- ( १ ) परिसमूहन ( गीले हाथ से बुहारना ) जो पूर्व से उत्तर तक तीन बार किया जाता है, (२) गोमय - उपलेपन ( गोबर से तीन बार लीपना ), (३) स्फ्य ( लकड़ी की तलवार) से दक्षिण से पूर्व या पूर्व से पश्चिम तीन रेखाएँ खींचना, (४) अंगूठे एवं अनामिका अंगुली से रेखाओं की मिट्टी हटाना तथा ( ५ ) तीन बार अभ्युक्षण करना ( जल छिड़कना) । अग्न्याधेय (अग्न्याधान ) गौतम (८/२०-२१) ने सात हविर्यज्ञों एवं सात सोमसंस्थाओं के नाम गिनाये हैं । अग्न्याधेय सात हविर्यज्ञों में प्रथम हविर्यज्ञ है । यह एक इष्टि है। 'इष्टि' शब्द का अर्थ है ऐसा यज्ञ जो यजमान ( याज्ञिक ) एवं उसकी पत्नी द्वारा ४. तंत्तिरीय संहिता (१६४८/२-३ ) के मत से दस यज्ञायुध ये हैं- "यो वै दश यज्ञायुधानि वेद मुखतोस्य यज्ञः कल्पते स्पयश्च कपालानि चाग्निहोत्रहवणी च शूपं च कृष्णाजिनं च शम्या चोलूखलं च मुसलं च वृषच्चोपला तानि मे यश यशायुधानि ।" इस विषय में शतपथब्राह्मण (१।१।१।२२) एवं कात्या० (२२३३८) भी प्रष्टव्य हैं। इन मुख्य बस यज्ञपात्रों के अतिरिक्त अन्य हैं—जूह, उपभृत्, लुक्, ध्रुवा, प्राशित्रहरण, इडापात्र, मेक्षण, पिष्टोद्वपनी, प्रणीताप्रणयन, आज्यस्पाली, वेद, वारुपात्री, योक्त्र, वेदपरिवासन, घृष्टि, इध्मप्रव्रश्चन, अन्वाहार्यस्थाली, मदन्ती, फलीकरणपात्र, अन्तर्धानकट (देखिए कात्या० १।३।३६ पर भाष्य, जिसमें इन उपकरणों के आकार, नाम एवं जिनसे ये बनते थे उन वस्तुओं के नाम आदि दिये हुए हैं) । पवित्र अग्नियों को प्रज्वलित करने वाला जब मर जाता है तो वह वैदिक अग्नियों एवं सारे यज्ञपात्रों (यज्ञायुषों) के साथ जला दिया जाता है (आहिताग्निमग्निभिर्बहन्ति यज्ञपा ---शबर, जैमिनि ११।३।३४) । इसी को पात्रों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पात्र व्यक्ति के शव के विभिन्न अंगों पर ( यथा जुहू दाहिने हाथ में, उपभृत् बायें हाथ में, ध्रुवा धड़ में आदि) रखे जाते हैं और उन्हें शव के साथ भस्म कर दिया जाता है। इस प्रकार यज्ञपात्रों की अन्तिम प्रतिपत्ति या 'गति' होती है। ५. अग्न्याधेय के पूर्ण विवेचन के लिए देखिए तंसिरीय ब्राह्मण १।१।२-१०, ११२ ११; शतपथ ब्राह्मण २०१ एवं २; अश्व० २ १९; अप० ५११-२२; कात्या० ४।७-१०: बौघा० २।६-२१ । धर्म ० ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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