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________________ ४८४ धर्मशास्त्र का इतिहास के नियमों के अनुसार नवीन अग्नि प्रज्वलित करके यज्ञाहुतियां देनी चाहिए। इस विषय में और देखिए गौतम (३३३६), आप० ५० मू० (२।९।२१।२०) एवं वसिष्ठधर्म० (९।१०)। अन्त में वानप्रस्थ को अपने शरीर में ही पवित्र अग्नियों को स्थापित कर बाह्य रूप से उनका त्याग कर देना चाहिए (वैखानस सूत्र)। देखिए मनु (२५) एवं याज्ञवल्क्य (३।४५)। (३) मनु (६५) एवं गौतम (३।२६ एवं २८) के मत से वानप्रस्थ को अपने गांव वाला भोजन तथा गृहस्थी के सामान (गाय, अश्व, शयनासन आदि) का त्याग कर देना चाहिए, और फूल, फल, कन्द-मूल पर तथा वन में या पानी में उगने वाली वनस्पतियों या यतियों के योग्य नीवार, श्यामाक (साँवा) आदि अनाजों पर निर्भर रहना चाहिए। किन्तु उसे मधु, मांस, पृथिवी पर उगने वाले कुकुरमुत्ता, भूस्तृण, शिग्रुक तथा श्लेष्मातक फल का सेवन नहीं करना चाहिए (मनु ६।१४)। गौतम ने कुछ नहीं मिलने पर मांसभोजी पशुओं द्वारा मारे गये पशुओं के मांस के सेवन की व्यवस्था दी है। याज्ञवल्क्य (३१५४-५५) एवं मनु (६।२७-२८) ने अन्य यतियों के यहाँ भिक्षा मांगने या गांवों में जाकर आठ मास भोजन मांगने की छूट दी है। मनु (६।१२) के मत से वह अपने द्वारा बनाया हुआ नमक खा सकता (४) उसे प्रति दिन-पंच महायज्ञ करने चाहिए, अर्थात् देवों, ऋषियों, पितरों, मानवों (अतिषियों) एवं भूतों (प्राणियों) की पूजा कर उन्हें यतियों के योग्य भोजन देना चाहिए या फलों, कन्दमूलों एवं वनस्पतियों से सत्कार करना चाहिए, इन्ही की भिक्षा देनी चाहिए। (५) उसे तीन बार स्नान करना चाहिए। प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकाल (मनु ६।२२ एवं २४, याज्ञ० ३। ४८, वसिष्ठ० ९।९)। मनु (६।६) ने दो बार (प्रातः एवं सायं) के स्नान की भी व्यवस्था दी है। (६) उमे मृगचर्म, वृक्ष की छाल या कुश से शरीर ढंकना चाहिए, और सिर के बाल एवं नख बढ़ने देने चाहिए (मन ६।६, गौतम ३।३४, वसिष्ठ० ९।११)। (७) उसे वेदाध्ययन में श्रद्धा रखनी चाहिए और वेद का मौन पाठ करना चाहिए (आप० ५० २।९।२२।९, मनु ६८ एवं याज्ञवल्क्य ३.४८)। (८) उसे संयमी, आत्म-निग्रही, हितैषी, सचेत तथा सदय (उदार) होना चाहिए। कुल्लूक का यह मत कि वानप्रस्थ को, साथ में पत्नी के रहने पर, नियमित कालों में मैथुन करना चाहिए, भ्रामक है, क्योंकि मनु (६।२६), याज्ञ० (३।४५) एवं वसिष्ठ (९।५) ने इसे वर्जित माना है। (९) उसे हल से जोते हुए खेत के अन्न का, चाहे वह कृषक द्वारा छोड़ ही क्यों न दिया गया हो, प्रयोग नहीं करना चाहिए, और न गाँवों में उत्पन्न फलों एवं कंद-मूलों का ही प्रयोग करना चाहिए (मनु ६।१६ एवं याज्ञवल्क्य ३।४६)। (१०) वह वन में उत्पन्न अन्न को पका सकता है या जो स्वयं पक जाय (यथा फल) उसे खा सकता है या अन्न को पत्थरों से कुचलकर खा सकता है, अपने दांतों से चबाकर खा सकता है। वह अपने भोजन तथा धार्मिक कृत्यों में घी का प्रयोग नहीं कर सकता; वह केवल वन में उत्पन्न होने वाले तेल का ही प्रयोग कर सकता है (मनु ६।१७ एवं याज्ञ० ३।४९)। ५. मेधातिथि (मनु ६९) के अनुसार 'बामणक' अग्नि उसी के द्वारा प्रज्वलित की जाती थी जिसकी पत्नी 'मर जाती थी अथवा जो छात्र-जीवन के तुरत बाद ही वानप्रस्थ हो जाता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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