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________________ अध्याय २६ प्रतिष्ठा एवं उत्सर्ग गत अध्याय में हमने दान के विषय में विस्तार के साथ अध्ययन किया। इसके उपरान्त हम स्वभावतः प्रतिष्ठा एवं उत्सर्ग की चर्चा पर आ जाते हैं । जनकल्याण के लिए मन्दिरों का निर्माण, उनमें देवों की प्रतिमाओं की स्थापना एवं कूप, तालाब, वाटिका आदि का समर्पण प्रतिष्ठा एवं उत्सर्ग के नाम से पुकारे जाते हैं। हमने बहुत पहले पढ़ लिया है कि मन्दिरों, कूपों तथा अन्य धार्मिक संस्थाओं का निर्माण पूर्त धर्म के अन्तर्गत आता है और शूद्र लोग यह कार्य कर सकते थे । याज्ञवल्क्य ( २।११४ ) की टीका मिताक्षरा के मत से स्त्रियां (विधवा भी) पूर्व कार्यों के लिए धन व्यय कर सकती थीं (यद्यपि वे वैदिक यज्ञ आदि नहीं कर सकती थीं ) । बहुत प्राचीन काल से सार्वजनिक लाभ एवं उपयोग के लिए दातव्य कार्यों एवं वस्तुओं से सम्बन्धित नियम बने हुए हैं। शबर ने स्मृतियों के प्रतिष्ठा विषयक नियमों श्रुति पर आधारित माना है (जैमिनि १।३।२ ) । ऋग्वेद (१०।१०७।१० ) में पुष्करिणी (तालाब) का उल्लेख हुआ है। विष्णुधर्मसूत्र ( ९१।१-२ ) के मत से जो व्यक्ति जन हित के लिए कूप खुदवाता है, उसके आधे पाप उसमें पानी निकालने के समय ही नष्ट हो जाते हैं, जो व्यक्ति तालाब खुदवाता है वह सदा प्रसन्न (निष्पाप ) रहता है और वरुण-लोक में निवास करता है । बाण ने कादम्बरी में लिखा है कि स्मृतियों के अनुसार लोगों को जन-सभाभवन, आश्रय, कूप, प्रपाएँ (पौसरे), वाटिकाएँ, मन्दिर, बाँध, जल-यन्त्र (घटयन्त्र ) आदि बनवाने चाहिए। कुछ ऋषियों ने तो यहाँ तक कहा है कि यज्ञों से केवल स्वर्ग मिलता है, किन्तु पूर्त, अर्थात् मन्दिरों, तालाबों एवं वाटिकाओं के निर्माण से संसार से मुक्ति हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि जन-कल्याण के लिए किये गये कार्य, यज्ञादि कृत्यों से, जिनमें केवल ब्राह्मणों को लाभ होता था, कई गुने अच्छे माने जाते थे । कूप या तालाब की प्रतिष्ठा विधि - शांखायनगृह्यसूत्र (५/२ ) ने कूप या तालाब खुदाने एवं उनकी प्रतिष्ठा के विषय में विधि लिखी है, यथा शुक्ल पक्ष में या किसी मंगलमय तिथि के दिन दूध में जौ का चरु ( उबाला हुआ भोजन ) पकाकर दाता को 'त्वं नो अग्ने' (ऋग्वेद ४।१।४-५) तथा 'अब ते हेड' (ऋग्वेद १ | २४|१४), 'इमं मे वरुणं' (ऋग्वेद १२५१९), 'उदुत्तमं वरुण' (ऋग्वेद १।२४।१५), 'इमां धियम्' (ऋग्वेद ८१४२/३ ) नामक मन्त्रों के साथ यश करना चाहिए। मध्य में दूध की आहुतियाँ दी जाती हैं और मन्त्रोच्चारण (ऋग्वेद १०।८११३७, १।२२।१७ एवं ७१८९१५) होता है। इस यज्ञ की दक्षिणा है एक जोड़ा धोती तथा एक गाय। इसके उपरान्त ब्रह्म-भोज होता है । कूप एवं जलाशय के प्रदान तथा प्रतिष्ठा के विषय में अन्य धर्मशास्त्र - सम्बन्धी ग्रन्थों में पर्याप्त विस्तार पाया जाता है (आश्वलायनगृह्यपरिशिष्ट ४४९, पारस्करगृह्यपरिशिष्ट, मत्स्यपुराण ५८, अग्निपुराण ६४) । किन्तु हम इस विस्तार में नहीं पड़ेंगे। क्रमश: पुराणों में वर्णित विधि को ही संप्रति महत्व दिया जाने लगा है ( अपरार्क पृ० १५ ) । १. इष्टापूत स्मृतौ धर्मों भुतौ तौ शिष्टसम्मतौ । प्रतिष्ठाचं तयोः पूर्तमिष्टं यज्ञा विलक्षणम् ॥ भुक्तिमुक्तिप्रदं पूर्तमिष्टं भोगार्थसाधनम् ॥ कालिकापुराण ( कृत्य रत्नाकर, पृ० १० में उद्धृत ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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