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________________ दान के प्रकार ४६५ वेदी पर खिंचे हुए एक वृत्त के मध्य में दो कल्पलताएँ तथा वेदी की आठों दिशाओं में अन्य आठ कल्पलताएँ रख दी जानी चाहिए। दस गायें एवं मंगल-घट भी होने चाहिए। दो कल्पलताएँ गुरु तथा अन्य आठ कल्पलताएँ पुरोहितों को दान में दे दी जानी चाहिए। सप्तसागरक-- ( मत्स्य २८७ ) । सामर्थ्य के अनुसार ७ पलों से लेकर १००० पलों तक के सोने से १०%, अंगुल (प्रादेश) या २१ अंगुल कर्ण वाले सात पात्र (कुण्ड) बनाये जाने चाहिए, जिनमें क्रम से नमक, दूध, घृत, इक्षुरस, दही, चीनी एवं पवित्र जल रखा जाना चाहिए। इन कुण्डों में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, इन्द्र, लक्ष्मी एवं पार्वती की आकृतियाँ डुबो देनी चाहिए और उनमें सभी रत्न डाले जाने चाहिए तथा उनके चतुर्दिक् सभी धान्य सजा देने चाहिए। वरुण का होम करके सातों समुद्रों का ( कुण्डों के प्रतीक के रूप में) आवाहन करना चाहिए और इसके उपरान्त उनका दान करना चाहिए। रत्नधेनु बहुमूल्य रत्नों से एक गाय की सुन्दर आकृति बनायी जाती है। उस आकृति के मुख में ८१ पद्मराग-दल रखे जाते हैं, नाक की पोर के ऊपर १०० पुष्पराग-दल, मस्तक पर स्वर्णिम तिलक, आंखों में १०० मोती, भौंहों पर १०० सीपियां रखी जाती हैं, कान के स्थान पर सीपियों के दो टुकड़े रहते हैं। सींग सोने के होते हैं। सिर १०० हीरक मणियों का होता है। गरदन (ग्रीवा) पर १०० हीरक मणियां होती हैं। पीठ पर १०० नील मणियां, दोनों पावों में १०० बैदूर्य मणियां, पेट पर स्फटिक पत्थर, कमर पर १०० सौगन्धिक पत्थर होते हैं । खुर सोने के एवं पूंछ मोतियों की होती है। इसी तरह शरीर के अन्यान्य भाग विभिन्न प्रकार के बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत किये जाते हैं। जीभ शक्कर की, मूत्र घृत का, गोबर गुड़ का होता है। गाय का बछड़ा गाय की सामग्रियों के आधे भाग का बना होता है। गाय एवं बछड़े का दान हो जाता है। महाभूतघट - - ( मत्स्य २८९ ) १०%, अंगुल से लेकर १०० अंगुल तक के कर्ण पर रखे हुए बहुमूल्य रत्नों पर एक सोने का घट रखा जाता है। इसे दूध एवं घी से भरा जाता है और इस पर ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की आकृतियाँ रची जाती हैं। कूर्म द्वारा उठायी गयी पृथिवी, मकर (वाहन) के साथ वरुण, भेड़े (वाहन) क्रे साथ अग्नि, मृग ( वाहन ) के साथ वायु, चूहे (वाहन) के साथ गणेश की आकृतियाँ घट में रखी जाती हैं। इनके अतिरिक्त जपमाला के साथ ऋग्वेद, कमल के साथ यजुर्वेद, बांसुरी के साथ सामवेद एवं स्रुक् स्रुवों ( करछुलों) के साथ अथर्ववेद एवं जपमाला तथा जलपूर्ण कलश के साथ पुराणों (पाँचवें वेद ) की आकृतियां भी घट में रखी जाती हैं। इसके उपरान्त सोने का घड़ा दान में दे दिया जाता है। । गोदान गोदान - महिमा -- अधिकांश स्मृतियों ने गाय के दान की बड़ी प्रशंसा की है। मनु (४।२३.१ ) के अनुसार गोदान करनेवाला सूर्यलोक में जाता है। याज्ञवल्क्य ( १।२०४ - २०५ ) एवं अग्निपुराण (२१०१३०) के अनुसार देय गाय के सींग तथा खुर क्रम से सोने एवं चांदी से जटित होने चाहिए। गाय के गले में घण्टी, उसको दुहने के लिए पात्र एवं उसके ऊपर वस्त्रावरण होना चाहिए। गाय सीधी होनी चाहिए (मरकही मारने वाली, लात, सींग चलाने वाली न हो ) । दान के साथ दक्षिणा होनी चाहिए। जो इस प्रकार की गाय का दान करता है वह उतने ही वर्षों तक स्वर्ग में रहता है जितने कि गाय के शरीर पर बाल होते हैं (देखिए संवतं, ७१, ७४-७५ ) । अनुशासनपर्व ( ५१ | २६-३४) में गोदान की महिमा का वर्णन है । " अनुशासनपर्व ( ८३।१७- १) ने लिखा है कि गाय यश का मूलभूत २३. गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किञ्चिदिहाच्युत । कीर्तनं श्रवणं दानं दर्शनं चापि पार्थिव ।। गवां प्रशस्यते धर्म० ५९ Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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