SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दान के प्रकार खण्ड, पृ० १६६-३४५) ने बहुत विशद वर्णन उपस्थित किया है और लिंग, गरुड़ तथा अन्य पुराणों एवं तन्त्र तथा आम ग्रन्थों से उद्धरण दिये हैं। दानमयख ने ८६ से १५१ पृ० तक १६ महादानों के विषय में लिखा है। मत्स्यपुराण (२७४। ११-१२) ने लिखा है कि वासुदेव, अम्बरीष, भार्गव, कार्तवीर्य-अर्जुन, राम, प्रह्लाद, पृथु एवं भरत ने महादान किये थे। इसके उपरान्त इस पुराण ने 'मण्डर' के निर्माण के विषय में नियम दिये हैं, मण्डप कई प्रकार के होते हैं, अर्थात् उनकी आकृतियाँ कई प्रकार की हो सकती है और उनके आकार भी विविध ढंग के हो सकते हैं, यथा-१६ अरस्नियों वाले (१ अरनिदाता के २१ अंगल की) या १२ या १० हाथ वाले, जिनमें चार द्वार और एक वेदी का होना आवश्यक है। वेदी ईटों से बनी ७ या ५ हाथ की होनी चाहिए, छादन संभालने के लिए एक तनोवा चाहिए, ९ या ५ कुण्ड होने चाहि। दो-दो मंगल-घट मण्डप के प्रत्येक द्वार पर होने चाहिए."तुला दो पलड़े वाली होनी चाहिए, जिसकी डॉड़ी अश्वत्थ, बिल्ल, पलाश आदि की लकड़ी की होनी चाहिए और उसमें सोने के आभूषण जड़े होने चाहिए। अन्य विस्तार स्थानाभाव के कारण नहीं दिये जा रहे हैं। चारों दिशाओं में चार वेदज ब्राह्मण बैठने चाहिए, यथा पूर्व में ऋग्वेदी, दक्षिण में यजुर्वेदी, पश्चिम में सामवेदी एवं उत्तर में अथर्ववेदी। इसके उपरान्त गणेश, ग्रह, लोकपालों, आठ वसुओं, आदित्यों, मरुतों, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, ओषधियों को चार चार आहुति होम किया जाता है, तथा इनसे सम्बन्धित वैदिक मन्त्र पढे जाते हैं। तुला-पुरुष-होम के उपरान्त गुरु पुष्प एवं गन्ध के साथ पीराणिक मन्त्रों का उच्चारण करके लोकपालों का आवाहन करते हैं, यथा--इन्द्र, अग्नि, यम, निर्भनि, वरुण, वायु, सोम, ईशान, अनन्त एवं ब्रह्मा। इसके उपरान्त दाता सोने के आभूषण, कर्णाभूषण, सोने की मिकड़ियाँ, कंगन, अंगूठियाँ एवं परिधान पुरोहितों को तथा इनके दूने (जो प्रत्येक ऋत्विक् को दिया जाय उसका दूना) पदार्थ गुरु को देने के लिए प्रस्तुत करता है। तब ब्राह्मण शान्ति-सम्बन्धी वैदिक मन्त्रों का पाठ करते है। इसके उपरान्त दाता पुनः स्नान करके, श्वेत वस्त्र धारण करके, श्वेत पुष्पों की माला पहन कर तथ हाथों में पुष्प लेकर तुला का (कल्पित विष्ण का) आवाहन करता है और तुला की परिक्रमा करके एक पलड़े पर चढ़ जाता है, दूसरे पलड़े पर ब्राह्मण लोग सोना रख देते हैं। इसके उपरान्त पृथिवी का आवाहन होता है और दाता तुला को छोड़कर हट जाता है। फिर वह सोने का एक आधा भाग गुरु को तथा दूमरा माग ब्राह्मणों को, उनके हाथों पर जल गिराते हुए देता है। दाता अपने गुरु एवं ऋत्विजों को ग्राम-दान भी कर सकता है। जो यह कृत्य करता है वह अनन्त काल तक विष्णुलोक में निवास करता है। यही विधि रजत या कर्पूर तुलादान में भी अपनायी जाती है (अपगर्क पृ० ३२०, हेमाद्रि-दानग्यण्ड, पृ०२१४)। राजा लोग कभी-कभी स्वर्ण का तुलादान अर्थात् तुलापुरुष महादान तो करते ही थे, कभी-कभी मन्त्रियों ने भी ऐसा किया है, जैसा कि मिथिला के राजाओं के मन्त्री चण्डेश्वर ने अपनी पुस्तक विवादरत्नाकर में अभिमान के साथ वर्णन किया है। १७. नीलकण्ट के पुत्र शंकर द्वारा प्रणीत कुण्डा नामक ग्रन्थ ने १५ पद्यों में कुण्डों के विषय में उल्लेख किया है। कुल बस प्रकार के होते हैं-वृत्ताकार, कमलाकार, चन्द्राकार, योनिवत्, त्रिभुजाकार, पंच भुजाकार, षभुजाकार, सप्तभुजाकार एवं अष्टभुजाकार। उसर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में खींचा हुआ कर्ण एक, दो, चार, छः या आठ हाथों का हो सकता है, जो १००० से १०,००० आहुतियों या १०,००० से लेकर एक लाख या एक लाख आहुतियों से एक करोड़ आहुतियों वाला (८ हाथ लम्बा कर्ण) हो सकता है। कर्ण को इतनी बड़ी लम्बाई का कारण यही है कि आहुतियाँ कुण्ड के बाहर न गिरें। विभिन्न प्रकार के कुण्ड विभिन्न प्रकार के कृत्यों के लिए निर्धारित हैं। विस्तार के लिए पढ़िए हेमादि (दानखण्ड, पृ० १२५-१३४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy